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पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/२१२

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कृष्णभक्ति-शाखा

(१५) व्यासजी––इनका पूरा नाम हरीराम व्यास था और ये ओरछा के रहनेवाले सनाढ्य शुक्ल ब्राह्मण थे। ओरछानरेश मधुकरसाह के ये राजगुरु थे। पहले ये गौड़ संप्रदाय के वैष्णव थे, पीछे हितहरिवंशजी के शिष्य होकर राधावल्लभी हो गए। इनका काल संवत् १६२० के आसपास है। पहले ये संस्कृत के शास्त्रार्थी पंडित थे और सदा शास्त्रार्थ करने के लिये तैयार रहते थे। एक बार वृंदावन में जाकर गोस्वामी हितहरिवंशजी को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा। गोसाईंजी ने नम्र भाव से यह पद कहा––

यह जो एक मन बहुत ठौर करि कहि कौने सचु पायो।
जहँ तहँ विपति जार जुवती ज्यों प्रगट पिंगला गायो॥

यह पद सुन व्यासजी चेत गए और हितहरिवंशजी के अनन्य भक्त हो गए। उनकी मृत्यु पर इन्होंने इस प्रकार अपना शोक प्रकट किया––

हुतो रस रसिकन को आधार।
बिन हरिवंसहि सरस रीति को कापै चलिहै भार?
को राधा दुलरावै गावै, वचन सुनावै चार?
वृंदावन की सहज माधुरी, कहि है कौन उदार?
पद-रचना अब कापै ह्वै है? निरस भयो संसार।
बडों अभाग अनन्य सभा को, उठिगो ठाट सिंगार॥
जिन बिन दिन छिन जुग सम बीतत सहज रूप आगार।
व्यास एक कुल-कुमुद-चंद्र बिनु उडुगन जूठी थार॥

जब हितहरिवंश जी से दीक्षा लेकर व्यासजी, वृंदावन में ही रह गए तब महाराज मधुकरसाह इन्हें ओरछा ले जाने के लिये आए, पर ये वृंदावन छोड़कर न गए ओर अधीर होकर इन्होने यह पद कहा––

वृंदावन के रूख हमारे मात पिता सुत बंध।
गुरु गोविंद साधुगति मति सुख, फल फूलन की गंध॥
इनहिं पीठ दै अनत डीठि करै सो अंधन में अंध।
व्यास इनहिं छोंडै़ औ छुड़ावै ताको परियो कंध॥