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पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/२४२

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भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

ज्यों रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगै, बड़े अँधेरो होय॥
सर सूखे पंछी उड़ैं, औरे सरन समाहिं।
दीन मीन बिन पंख के कहु रहीम कहँ जाहिं॥
माँगत मुकरि न को गयो, केहि न त्यागियो साथ?
माँगत आगे सुख लह्यौ ते रहीम रघुनाथ॥
रहिमन वे नर मरि चुके जे कहुँ माँगन जाहिं।
उनते पहिले वे मुए जिन मुख निकसत "नाहिं"॥
रहिमन रहिला की भली, जो परसै चित लाय।
परसत मन मैलो करै, सो मैदा जरि जाय॥


(बरबै नायिका-भेद से)

भोरहिं बोलि कोइलिया बढेवति ताप। घरी एक भरि अलिया! रहु चुपचाप॥
बाहर लैकै दियवा बारन जाइ। सासु ननद घर पहुँचत देति बुझाइ॥
पिय आवत अँगनैया उठिकै लीन। विहँसत चतुर तिरियवा बैठक दीन॥
लै कै सुघर खुरपिया पिय के साथ। छडबै एक छतरिया बरसत पाथ॥
पीतम एक सुमरिनियाँ मोहिं देइ जाहु। जेहि जपि तोर बिरहवा करब निबाहु॥


(मदनाष्टक से)

कलित ललित माल वा जवाहिर जडा था। चपल-चखन-वाला चांदनी में खड़ा था॥
कटितट बिच मेला पीत सेला नवेला। अलि, बन अलबेला यार मेरा अकेला॥


(नगर-शोभा से)

उत्तम जाति है बाम्हनी, देखत चित्त लुभाय।
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय॥
रूपरंग रतिराज में, छतरानी इतरान।
मानौ रची बिरंचि पचि, कुसुम-कनक में सान॥