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पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/२७१

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हिंदी-साहित्य का इतिहास


छंद में इतना रस भर सके हैं। इनके दोहे क्या हैं रस के छोटे-छोटे छींटे हैं। इसी से किसी ने कहा है-

सतसैया के दोहरे ज्यों लावक के तीर। देखत में छोटे लगैं बैधैं सकल सरीर॥

बिहारी की रसव्यंजना का पूर्ण वैभव उनके अनुभवों के विधान में दिखाई पड़ता है। अधिक स्थलों पर तो इनकी योजना की निपुणता और उक्ति कौशल के दर्शन होते हैं, पर इस विधान में इनकी कल्पना की मधुरता झलकती है। अनुभावों और हावों की ऐसी सुंदर योजना कोई शृंगारी कवि नहीं कर सका है। नीचे की हावभरी सजीव मूर्तियाँ देखिए-

बतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ। सौंह करै, भौंहनि हंसै, देन कहै, नटि जाई॥
नासा मोरि, नचाइ दृग, करी कका की सौंह। काँटे सी कसकै हिए, गड़ी कटीली भौंह॥
ललन चलन सुनि पलन में, अँसुवा झलकै आइ। भई लखाइ न सखिन्ह हू, झूठे ही जमुहाइ॥

भाव व्यंजना या रस-व्यंजना के अतिरिक्त बिहारी ने वस्तु-व्यंजना का सहारा भी बहुत लिया है-विशेषतः शोभा या कांति, सुकुमारता, विरहताप, विरह की क्षीणता आदि के वर्णन से कहीं कहीं इनकी वस्तु-व्यंजना औचित्य की सीमा का उल्लंघन करके खेलवाड़ के रूप में हो गई है, जैसे-इन दोहों में-

पत्रा ही तिथि पाइए, वा घर के चहुँ पास। नित प्रति पून्योई रहै, आनन-ओप-उजास॥
छाले परिबे के डरन सकै न हाथ छुँवाई। झिझकति हियैं गुलाब कैं, झवा झवावति पाइ॥
इत आवति, चलि जात उत, चली छ सातक हाथ। चढ़ी हिंडोरे सी रहै, लगी उसासन साथ॥
सीरे जतननि सिसिर ऋतु, सहि बिरहिनि तनताप। बसिबै कौ ग्रीषम दिनन, परयो परोसिनि पाप॥
आड़े दै आले बसन, जाड़े हूँ की राति। साहस कै कै नेहबस, सखी सबै ढिंग जाति॥

अनेक स्थानों पर इनके व्यंग्यार्थ को स्फुट करने के लिये बड़ी क्लिष्ट कल्पना अपेक्षित होती है। ऐसे स्थलों पर केवल रीति या रूढ़ि ही पाठक की सहायता करती है और उसे एक पूरे प्रसंग का आक्षेप करना पड़ता है। ऐसे दोहे बिहारी में बहुत से हैं। पर यहाँ दो एक उदाहरण ही पर्याप्त होंगे-

ढीठि परोसिनि ईठ ह्वै कहे जु गहे सयान। सबै संदसे कहि कह्यो मुसकाहट मैं मान॥
नए बिरह बढ़ती बिथा, खरी बिकल जिय बाल। बिलखी देखि परोसिन्यौं हरषि हँसी तिहि काल॥