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पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/६९०

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नई धारा

दीन-दरिद्रों के देहों को मेरा मंदिर मानो।
उनके आर्त्त उसासों को ही वंशी के स्वर जानो।

इसी प्रकार द्वारका के दुर्ग पर बैठकर कृष्ण भगवान बलराम-का ध्यान कृषकों की दशा की ओर इस प्रकार आकर्षित करते हैं-

जो ढकता है जग के तन को, रखता लज्जा सबकी।
जिसके पूत पसीने द्वारा बनती है मज्जा सबकी।
आज कृषक वह पिसा हुआ है इन प्रमत्त भूपों द्वारा।
उसके घर की गायों का रे। दूध बना मदिरा सारा।

पुरुषों के सब कामों में हाथ बँटाने की सामर्थ्य स्त्रियाँ रखती है यह बात रुक्मिणी कहती मिलती हैं।

यह सब होने पर भी भाषा प्रौढ़, चलती और आकर्षक नहीं।


३-छायावाद

संवत् १९७० तक किस प्रकार 'खड़ी बोली' के पद्यों में ढलकर मँजने की अवस्था पार हुई और श्री मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधर पांडेय आदि कई कवि खड़ी बोली काव्य को अधिक कल्पनामय, चित्रमय और अंतर्भाव-व्यंजक रूप-रंग देने में प्रवृत्त हुए, यह कहा जा चुका है। उनके कुछ रहस्य भावापन्न प्रगीत मुक्तक भी दिखाए जा चुके हैं। वे किस प्रकार काव्य-क्षेत्र का प्रसार चाहते थे, प्रकृति की साधारण-साधारण वस्तुओं से अपने चिर संबंध का सच्चा मार्मिक अनुभव करते हुए चले थे, इसका भी निर्देश हो चुका है।

यह स्वच्छंद नूतन पद्धति अपना रास्ता निकाल ही रही थी कि श्री रवींद्रनाथ की रहस्यात्मक कविताओं की धूम हुई और कई कवि एक साथ 'रहस्यवाद', और 'प्रतीकवाद' या 'चित्रभाषावाद' को ही एकांत ध्येय बनाकर चल पड़े। 'चित्रभाषा' या अभिव्यंजन-पद्धति पर ही जब लक्ष्य टिक गया तब उसके प्रदर्शन के लिये लौकिक या अलौकिक प्रेम का क्षेत्र ही काफी समझा गया। इस बँधे हुए क्षेत्र के भीतर चलने वाले काव्य ने 'छायावाद' का नाम ग्रहण किया।