पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२६१

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एक शरीरका विना पाश्रय लिए पहिला पगेर नहीं प्रतिमे ही समस पुरुष जमग्रहण करते है, त्यागता।" पावेतो महादेवकः स बातको सुन कर प्रतिसे हो जगत्को उत्पत्ति है। जैसे जलसे बुबुढे कहा-"यदि जोब दूसो एक देशको ग्रहण विना किये होत पौर फिन विलीन हो जाते हैं, मी प्रकार प्रशति- पूर्वदेहको नहीं छोड़ते, तो मृत व्यक्तिका पिण्डादि ग्रहण मे हो मच उत्पन होते पोर उमौसे लय हो जाते है। कैसे होता है ? पाप अनुग्रहपूर्वक मेरे इस संशयको भो ब्रह्मा, विषण और महम्बर प्रतिसे की उत्पव हुए है दूर कीजिये।" महादेव बोले-है शिवे ! मृत्यक तथा प्रतिमें ही लीन हो जायगे । प्रलयकालके उपस्थित समय मायादेह होतो है, मायारूप देह वायुस्वरूप है, होने पर यह ब्रह्माण्ड प्रतिमें हो विलुप्त हो जायगा। यह मायादेह पाकाशस्थित हो कर निराश्रय भावसे तान्त्रिकतत्त्व- रहती है। जब तक पिण्डदान नहीं दिया जाता, तब "नीरूपां वा स्मरेत्देवी पुरूषा वा स्मरेत् प्रिये । सक व इसी तरह निराश्रय रहता है। स्मरेद्वा निष्कल ब्रह्म सचिदानन्दरूपिणीम् । ___ उमके बाद मृत व्यक्तिको पिगडदान दिये जाने पर नेयं योपिन च पुमान् न षण्डो न जा: स्मृतः। वह वायु स्थिर होते है और क्रममे मस्तक उत्पब हो तथापि कल्पवल्लीवत् स्त्रीशब्दन च युज्यते ॥ कर प्रन्योन्य अवयव मब उत्पन होत हैं पाछे यमपुरको साधकानो हितार्थाय अरूपा रूपधारिणी।" जा कर पाप और पुण्य जो कुछ होता है उसको भोगता वह मच्चिदानन्दरूपिणो देवो चाहे स्त्रीरूपमें हो वा है। पाप और पुण्य रहनसे स्वर्ग और नरक भोगता है। पुरुषरूपमें और चाह निष्कन ब्रह्मभावमें हो हो-उनका उनका भोग हो जाने पर जब कोई कर्म बाकी नहीं रह स्मरण करना चाहिये । वास्तवमें वह न तो स्त्री है, न जाते, तब जाव यमकी प्राजाकै अनुमार ब्रह्मशासनको पुरुष और न पगढ़ अथवा जड़ हो है। तथापि कल्पलता गमन करता है। पोछे कर्मानुसार उत्तमा आदि तनु जैसे स्त्रीवाचक है, उमी तरह उममें नी सो शब्दका लाभ करता है। प्रयोग करना चाहिये। उनका रूप नहीं है, वह माध. किन्तु यदि काई भाग्यक्रममे मदगुरु, महाविद्या कोंके मङ्गलके लिए रूपधारिणी है। वा तत्त्वज्ञान प्राप्त कर ले, तो वह जब तक इस ब्रह्माण्ड प्रपनमारमें लिखा- में रहता है, तब तक नोक्ष लाभ करता है। इनमें ब्राह्मण "तामेतां कुण्डलीत्येके सन्तो हृययना विदुः । महामोक्ष, क्षत्रिय सायुज्य, वैश्य सारूप्य और शूद्र सा रौति सतत देवी गीसंगीतकम्वनिम् ॥" वह महाशक्ति कुम्नकुण्डलिनी योगीन्द्रोंकायको होता । हे शिवे ! जिन समय इस वृहत् ब्रह्माण्डका नाश पात्रय कर रहतो हैं, तथा वह हा जीवके मूलाधारमें होगा, उस समय ममी जीव मुक्त होवेंगे। इस ब्रह्माण्डका मिरत हो भ्रमरसङ्गीतवत् गुन् गुन् ध्यान करती हैं। वाद्य-देह और ब्रह्माण्ड अनक हैं, ब्रह्माण्ड भी पनन्त हैं। मारदातिलकमें कहा गया है- इम अनन्तका प्रमाण कहनको क्या कोई समर्थ है? "योगिणां हृदयाम्भोजे नृत्यम्ती नृत्यमजसा। "प्रकृत्या जाते पुसां प्रकृत्या सुन्यते जगत । आधारे सर्वभूतानां स्फूरती विद्युदाकृतिः। तोयात्तुबुद्धुदं देवि यथातोये विलीयते ॥ शंखावर्तकमात्देवी सर्वमात्य तिष्ठति । प्रकृत्या जाश्ते सर्व प्रकृत्या समुज्यते जगत् । कुंडलीभूतसर्याणामंगश्रियमुपेयुषी॥ तोयात्तुबुद्बुद देवि यथा तोपे विजयते ॥ 'सर्ववेदमयी देवी सर्वमन्त्रमयी शिवा। तस्मात् प्रकृतियोगेन जायते नान्यथा कचित् । सर्वतस्वमयी साक्षात् सूक्ष्मात् सक्ष्मतरा विभुः। ब्रह्मा विष्णु घिनो देषि प्रकृल्या जायते ध्रुवम् ॥ त्रिधामजननी देवी शब्दब्रह्मस्वरूपिणी ॥" तपा प्रलयकालेतु प्रकृत्या लुम्यते पुनः ।" योगियोंके हदयकमलमें अपना अपना रूप प्रकाश ....... (निर्वाणतन्त्र ) । पर अपने भानन्दमें वृत्य करती है। सर्वभूत. Vol. Ix.65