रोग और पितृदोपजात। मातृदोपप्रयुक्त जन्मान्य. वधिर, आश्रय है। अतएव विना उनका आश्रय किये रोग रह मूक, मिनमिन और वामन इत्यादि है। यह मातृदोष फिर' नहीं सकता। दो प्रकारका है, रसजनित दोप और दोहवजनिनदोप। दोप धातु और बलके परम्पर संसगे यान नया (गर्भावस्था में स्त्रियों की जो आहार विहागदिकी रुचि कारण भेदसे अनेक प्रकारका हुआ करता है । सनयातु होती है उसे दोहद कहते हैं ) यह दोहद पूर्ण नहीं होने : और दोष कन, फ दृपित हो कर जो सब रोग उत्पन्न ले सन्तानमें दोष उत्पन्न होता है। होते हैं उनके रसज, रनाज, मांसज, मेदोज, अरियज, ___ आतङ्क अथवा मिथ्या आहार-विहारजनित जो मय मजज और शुक्रज नाम रखे जा सकते हैं। इनमसे फिर रोग उत्पन्न होते हैं, उन्हें दोपवलजात रोग कहते हैं। रसधातु के दृपित होनेसे अन्नमें अरचि, अश्रद्धा, अपाक, यह दोषवलजात रोग दो प्रकारका है, शारीरिक और , अङ्गमद्द, ज्यर, हलाम, तृप्ति ( धाका अभाव ), मानसिक । शारीरिक दोपके भी फिर दो भेद है, आमा शरीरका गीग्य, पाण्ड, हटोग, मार्गका उपरोध, कंगना, शय आश्रित और पक्वाशय आश्रित । पूर्वोक्त सभी रोगों मुपवरस्य, अवसनता, अकालमें वालोंका पकना आदि को आध्यात्मिक रोग कहते हैं। आगन्तुक रोग ही विकार ; शोणित पित होनेने कुष्ठ, विमर्प, पीडका, संघात-वलजातरोग है। आगन्तुक रोग दो प्रकारका है, . नीलिका, तिल, व्यग, न्यच्छ, इन्द्रलुम, लोहा, विधि, शस्त्राघातजनित और हिनजन्तुकृत । यह भागन्तुक रोग गुल्म, वातरक्त, अर्श, अर्बुद, मनमद, अमृग दर, रक्त. आधिभौतिक रोग कहलाता है। ' पिच तथा मुख, मलद्वार और मेढ देशमें पाक आदि शीत, उष्ण, वात, वर्षा आदि कारणोंसे जो सव विकार, मांस दृपित होनेसे अधिमांस, अर्बुद, अर्श रोग उत्पन्न होते हैं उन्हें कालवलजात रोग कहते हैं। अधिजिला, उपकुश, गलगण्डिका, आलजी और मांस पुस फालयलजात रोगके दो भेद हैं, ऋतुविपयेयजात संसृति आदि विकार । मेद दूपित होनेसे प्रन्थि, वृद्धि, और स्वाभाविक ऋतुजनित । देवद्रोह और अभिशापादि। गलगण्ड, अर्बुद, ओप्टप्रकोप, मधुमेह, अति स्थलता जानित अथवा अथर्ववेदोक्त मारण आदि कार्य करनेसे और अतिशय पसीना निकलना आदि विकार ; अम्यि नाना प्रकार उपसर्गजनित जो रोग होता है उसे दैववल दूपित होनेसे अध्यस्थि, अधिदन्त, अस्थितीद और भात रोग कहते हैं। यह दैववलजनित रोग फिर दो' कुलध आदि विकार, मना दृपित होनेसे तमादृष्टि प्रकारका है, विद्य त् वा चनाघातकन और पिशाचादि मूर्छा, भ्रम, शरीरका गौरव, ऊर और जलाकी स्थूलता, कृत। इनके भी फिर दो विभाग किये जा सकते हैं, चक्षु के अभिष्यन्दी आदि रोग, शुक्र दृपित होने माफस्मिक (जो घटनाक्रमसे हो ) और संसर्गजात। क्लीयता, प्रहर्पण (रोगटे खडा हो जाना), शुक्रामरी क्षधा, पिपासा, जरा, मृत्यु और निद्रा आदि और शुक्रमेह आदि विकार, मलाशय दृपित होनेसें खभाषवलजात रोग भी दो प्रकारका है, कालकृत और त्वक रोग, मलरोध वा अत्यन्त मल निकलना आदि कालकत। अत्यन्त यत्न करने पर भी जो आरोग्य ; विकार उत्पन्न होते हैं । शारीरिक किसी इन्द्रियका नहीं होता उसे कालत और नो विना यत्नके ही स्थान दूपित होनेसे इन्द्रियकार्य को अप्रवृत्ति अथवा भारोग्य हो जाता है उसे अकालकृत कहते हैं। अस्वभाविक प्रवृत्ति होती है। सभी दोप दूपित हो कर वात, पित्त और श्लेष्मा ही सभी प्रकारके रोगोंका तमाम शरीरमें फैल जाता है। उनमेंसे जहा-उसं मूल है। रोग होनेसे ही उनके थोड़े बहुत लक्षण दिखाई । कपित दोपके संसर्गसे दूसरा दोष विगुण हो जाता है 'देते हैं । जिस प्रकार यह समस्त विश्व सत्त्व, रज और वहा रोग हुमा करता है। तम इन तीन गुणों के विना नहीं रह सकता, उसी प्रकार ___यहां पर यह संशय हो सकता है, कि ज्वर आदि रोगसमूह भी वायु, पित्त और श्लेष्मांके बिना रह नहीं रोग वायु, पित्त और कफ इन तीन दोपोंका हमेशा सकता। वात, पित्त और श्लेष्मा रोगका एक माल | आश्रय किये हुए रहता है या उन्हें विराम भी है,