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३२
(छठवां
हृदयहारिणी।



मेरे दुश्मन गोरे निहायत ही बेरहमी के साथ क़त्ल किए जावेंगे। चुनांचे अगर तुम अपने जान व माल की खैर चाहते हो तो विलायती गोरों से बिल्कुल ताल्लुक छोड़दो और मुझे अपनी दोस्ती का यकीन दिलाओ। अपनी सफ़ाई और दोस्ती के ज़ाहिर करने के वास्ते तुम्हारे लिये यह तरीका सबसे अच्छा होगा कि तुम फ़ौरन अपनी हमशीरा नाज़नीन लवङ्गलता को मेरी ख़िदमत में दाखिल करो, वर्ना तुम यही समझना कि तुम्हारे हयात के दिन पूरे हो गए।

तुम्हारा,

नब्बाब सिराजुद्दौला।"

इस पत्र के पढ़ते ही, मारे क्रोध के नरेन्द्रसिह, माधवसिंह और मदनमोहन की आखें लाल हो गईं और उनमें से आग की चिनगारियां झरने लगीं। नरेन्द्र सह ने तल्वार के कब्ज़े पर हाथ डालकर कहा,-

"हैं! इस पाजी की इतनी बड़ी मजाल!!! क्या, भारत से आज हिन्दुओं का बिल्कुल नाम ही मिट गया! तब मेरा नाम नरेन्द्र कि उस बदमाश को इस कमीनेपन का मुह तोड़ जवाब दूं।"

मदनमोहन ने क्रोध से भभककर कहा,-

"जी चाहता है कि अभी उस नालायक की धज्जियां उड़ादूं।"

माधवसिंह ने इतनी देर में अपने क्रोध को आप ही आप ठढा कर लिया था, इसलिये उन्होंने नरेन्द्रसिंह और मदनमोहन को बहुत कुछ समझा बुझा कर शान्त किया, पर नरेन्द्र ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सिराजुद्दौला को एक छोटासा पत्र अवश्य लिखा। उसकी भी वानगी देखिए,-

"सिराजुद्दौला,

"महात्माओं ने सच कहा है कि,-'जब मनुष्य के बिनाश होने के दिन आते हैं तो उसकी बुद्धि भ्रष्ट होजाती है;' इसलिये जब कि अंग्रेजों से बैर बिसाह कर तू आप ही आप बहुत जल्द बिनष्ट हुआ चाहता है तो ऐसी अवस्था में तुझ पर, तेरे पत्र पर और तेरे घमंड पर मैं केवल थूककर शान्त होता हूँ। याद रख, कि तू अपने इस घमंड के कारण कुत्तों की मौत मारा जायगा और तेरी बेगमें बाजारों में टके टके को बिकती फिरैंगी।"

पांचवां पत्र काशी से नरेन्द्र के पुरोहित ने लिखा था, जिसकी नकल यह है,-