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पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/१४०

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हृदय की परख

"यह क्यों? क्या फ़ुर्सत नहीं मिलती?"

"फ़ुर्सत? हाँ यह भी बात है।"

"और क्या?"

विद्याधर ने तनिक गंभीर होकर कहा―"लोग उँगली उठाते हैं।"

"कैसी उंगली?"

"यही तरह-तरह की बात कहते हैं।"

"कैसी बातें? कहिए न?"

विद्याधर ने अन्यत्र देखते हुए कहा―"लोग कहते हैं कि सरला इसकी कौन है, ऐसी ही बात।"

सरला ने शांति से कहा―"यही बात, बस?"

"हाँ, ऐसी ही बातें हैं।"

"अच्छा, तो इसका मैंने एक उपाय सोच लिया है।"

विद्याधर ने तनिक व्यग्र होकर पूछा―"क्या?"

सरला ने युवक की आँखों में आँख गड़ाकर कहा―"मैं तुमसे व्याह करूँगी।"

सरला ने देखा कि उसकी इस अनुपम बात ने युवक के हृदय का द्वार बिलकुल नहीं खटखटाया। जैसे मिट्टी का ढेला पत्थर पर गिरकर बिखर जाता है, वैसे ही सरला की बात भी बिखर गई।

सरला सोचने लगी―यह क्या? जिस बात को सुनकर इनका हृदय नाच उठना चाहिए, उसे सुनकर यह गुम क्यों