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पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/७३

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दसवाँ परिच्छेद

कर सरला ने अपना मुँह आँचल से छिपा लिया। वह लज्जा के मारे मर गई।

कुछ देर तक सन्नाटा रहा; पीछे सरला ने मुँह ऊपर को उठाया। उसकी इच्छा थी कि एक बार शारदा की आँखों को देखूँ, पर वहाँ दृष्टि न ठहरी। सरला ने कहा―"मा! आशीर्वाद दो कि तुम्हारी सरला ईश्वर के राज्य में निर्भय विचरण करे। अभी तुमने जिस पारिजात के उपवन का नाम लिया है, वहाँ को जी कैसा ललचा रहा है―वह मुझे कैसे प्राप्त होगा?"

शारदा बोली―"जहाँ की तुम्हें आकांक्षा है, तुम वहीं तो हो। तुम्हारे सौभाग्य का क्या कहना है! मुझ अधमा नारी का जीवन एक ऐसी डोरी के सहारे लटक रहा है, जिसका ओर तो है, पर छोर नहीं। तुमने कैसे सुदर राज्य का प्रलोभन दिया है, पर बेटा! वह रस्सी आज तक न छूटी। छूटने की कुछ आशा भी नहीं है।"

यह कहकर उसने एक ऐसी लंबी साँस भरी कि उसके साथ सैकड़ों स्मृतियाँ, असंख्य वेदनाएँ और अगणित अनु- ताप बाहर निकलकर वायु-मंडल में मिल गए।

फिर उसने वहा―"और तुम? ईश्वर करे तुम्हारे हृदय का सौंदर्य अटल रहे। तुम ऐसे पथ की पथिका हो, जहाँ निष्ठुरता, अवज्ञा, अनुताप और अनुदारता की गंध भी नहीं है।" रमणी के होठ फड़कने लगे। गला रुँध गया। फिर