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पृष्ठ:Garcin de Tassy - Chrestomathie hindi.djvu/५८

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॥४२॥ उधर रुक्म तो राजा भीष्मक से बैर कर वहां रहा श्री इधर श्री कृषचंद श्री बलदेव जी चले चले द्वारिका के निकट श्राय पहुंचे। उडी रेन आकाश नु छाई। तब ही पुर बासिन सुध पाई॥ अावत हरि जाने जब लिं राख्यो नगर बनाय। शोभा भई तिहुँ लोक की कही कोम पे जाय॥ उस काल वर पर मंगलाचार हो स्ले द्वार द्वार केले के खंभ गडे कंचन कलस सजल सपन्नव धरे ध्वजा पताका. फलाय रहीं तोन बंदनवारें बंधी हुई और स हाट बाट चोलटों में चोमुखे दिये लिये युवतियों के यूथ के यूथ खडे श्री राजा उग्रसेन भी सब यटुबंसियों समेत बाजे गाजे से अगाउ जाय रीति भांति कर बलराम सुखधाम श्री श्री कृषचंद श्रानंदकंद को नगर में ले पाए। उस समें के बनाव की छबि कुछ बरनी नहीं जाती क्या स्त्री क्या पुरुष सब ही के मन में अानंद छाय रहा था। प्रभु के सोंही पाय प्राय सब भेट दे दे भेटते थे श्री नारियां अपने अपने द्वारों बारों चौबारों कोठों पर से मंगली गीत गाय गाय भारता उतार उतार फूल बरसाबती थीं श्री श्री कृषचंद श्री बलदेव जी जथा यो सब की मनुहार करते जाते थे। निदान इसी रीति से चले चले राजमंदिर में जा बिराजे। आगे के एक दिवस पीछे एक दिन श्री कृष जी राजसभा में गये जहां राजा उग्रसेन सूरसेन बसुदेव आदि सब बडे बडे यटुबंसी बैठे थे ओर प्रनाम कर इन्हों ने उन के आगे कहा कि महाराज युद्ध जीत जो कोई सुंदरि लाता है वही राक्षस ब्याह कलाता है।