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हिन्दू धर्म
 

अब हम वेदान्तदर्शन के उत्तुंग शिखर से नीचे उतरकर साधारण अशिक्षित लोगों के धर्म की ओर आते हैं। प्रारम्भ में मैं तुम्हें बता देना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में अनेकेश्वरवाद नहीं है। प्रत्येक मंदिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने, तो वह यही पाएगा कि भक्तगण सर्वव्यापिस्व से लेकर ईश्वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते हैं। यह अनेकेश्वरवाद नहीं है, और न इसका नाम 'कोई देवताविशेष का प्राधान्यवाद' ही हो सकता है। गुलाब को चाहे दूसरा कोई भी नाम क्यों न दे दिया जाय पर वह सुगंध तो वैसी ही मधुर देता रहेगा। केवल नाम ही से तो किसी वस्तु का पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता।

मेरे बचपन की एक बात मुझे यहाँ याद आती है। एक ईसाई पादरी कुछ मनुष्यों की भीड़ जमा करके धर्मोपदेश कर रहा था। बहुत सी मजेदार बातों के साथ वह पादरी यह भी कह गया कि "अगर मैं तुम्हारी देवमूर्ति को एक डंडा लगाऊँ, तो वह मेरा क्या कर सकती है ?" एक श्रोता ने चट चुभता-सा जबाब दिया कि " अगर मैं तुम्हारे ईश्वर को गाली दे दूँ, तो वह मेरा क्या कर सकता है ?" पादरी बोला, " मरने के बाद वह तुम्हें सजा देगा।" हिन्दू भी तनकर बोल उठा, "तुम मरोगे तब ठीक उसी तरह हमारी देवमूर्ति भी तुम्हें योग्य पुरस्कार देगी !” वृक्ष अपने फलों से जाना जाता है। जब मूर्ति-पूजकों में मैं ऐसे मनुष्यों को पाता हूँ कि चारित्र्य, आध्यात्मिक भाव और प्रेम में उनकी बराबरी का कहीं कोई

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