पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५३३

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राग मलार

                           (३८३)
                   जतन बिन मृगनि खेत उजारे।
                 टारे टरत नहीं निस बासुरि, बिडरत न्हीं बिडारो। टेक॥
              अपने अपने रस क लोभी, करतब न्यारे न्यारे ॥
               अति अभिमान बदत न्हीं काहू, बहुत लोग पचि हारे॥
              बुधि मेरी किरषी, गर मेरौ बिभ्किका, आखिर दोइ रखवारे
                 कहै कबीर अब खान ल दैहू, बरियां भली सभारे॥
शब्दार्थ - जतन= यत्न, साधना मृगनि=पशुओ, पाशविक वृतियाँ-काम क्रोधि। बिडरत= बिडारना, भागना। किरषी= कृषि । बिभुक्ता= विजूका, खेत मे जन्तओ को डराने के लिए खडा किया हुआ पुतला इत्यादि॥

संदर्भ- कबीरदास विष्यासक्ति का वर्णन करते है।

भावार्थ- साधना के अभाव मे काम त्रोधादिक विकारो ( अथवा इन्द्रिया- शक्ति ) रुपी पशुओ ने मेरे जीवन रूपी खेतं को नष्ट कर दिया है। ये रात दिन धेरे रहते है, हटाने से हटते नहीं है और भगाने से भागते न्हीं है॥ तात्पर्य यह है कि मन को कितना भी समझाओ और विपयो से ह्टाने का प्रयत्न करो, परंतु वह मानता ही नही। पाशविक वृत्तियों रुपी ये पशु अपने अपने विषय- स्वाद के लोभो है और अलग- अलग ढग से विषय की ओर प्रवृत्ति होते है और उसका भोग करते है (जिस प्रकार प्रत्येक पशु) अपने भिन्न रुचि के अनुसार खेत में उत्पन्न होने वाली वस्तु को खाते है। प्रत्येक पशु का खेत मे घुसने ओर असका अजाने का तरीका भी बिन्न होता है। इन सबको अपनी सामर्थ्य का बहुत ही घमंड है और ये अपने आगे किसी साधक थक कर बैठ गयै अथार्त असफल हो गये । कबीर कहते है कि अव मैंने ठौक समय पर समस्त स्थिति को समझ लिया है । अपनी बुद्धि रुपी कृषी को रखवाली के लिए मुझे गुरु का उपदेश रुपी विजूका मिल गया तथा 'रा' ओर 'म' ये दो अक्षर उस खेती की रखवाली करने वाले मिल गये है। अब मैं इन मृगों को जीवन- रुपी खेत नष्ट करने दूँगा।

अलकार- १ सांगरूपक- संपूर्ण पद खेत ओर जीवन क रुपक है। २] रुपकातिशयोक्ति - मृग्नि । ३] पुनरक्ति प्रकाश- न्यारे- न्यारे। ४) विशेपोक्ति- हारे ।

विशेष- १ व्यलाना यह है कि सदगुरु की क्रिपा और प्रभु की भक्ति के द्वारा ही विपयासवित को वश मे किया जा सकता है, अन्य्था नहीं। २] बरियाँ का अर्थ वाड भी हो सकता है। तब इस प्ंक्ति का अर्थ इस प्रकार होगा- मैंने अपनी खेत का सथम एव सात्विक बुद्धि रुपी चाड ठीक कर