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[कबीर
 

वह ज्ञान और भक्ति के स्मान्वय से उत्पन्न प्रेम के महारस का पान करने वा बनता है और कायायोग एव ध्यान योग द्वारा प्राप्त होने वाले अम्रित का भय करता है। वह ग्यन की अग्नि मे शरीर को जलाने वाली वासनाओ को भस्मीभू कर देता है तथा अजपा जाप (अनहद नाद) मे लवलीन रहता है । वह जगत विमुख होकर चेतना को रकुती मे स्थित कर देता है और इस प्रकार समाधिर हो जाता है । सहज समाधि मे स्थित होकर वह समस्त विपयो को त्याग देता है वह इदा पिगला एव सुशुम्ना के मिलन- बिन्दु रूप त्रीवेदी मे अवगाहन करतद तथा आनन्द की विभूति को अपने अन्त करन मे रमाकर मन को वासनाओ रहित करने पवित्र करता है । कबीर अलख निरजन प्रभु की भक्ति करता है ।

अलन्कार- (I)रूपक- महारस अम्रित व्रिहा अग्नि , विभूति ।

(II) विरोधाभास- अजपा जाप ।

विग्योश--(I) भक्तो की भान्ति कबीरदास निगु व्रहा की भक्ति करते और सेव्य भाव का आरोप करते है ।

(II)कायायोग , ग्यान , एव भक्ति वी त्रिवेणी हश्ट्व्य् है।

(III)अम्रत - देखे टिप्प्णी पद स ०४

अपना जाप - देखे टीप्प्णी पद स ०१५७

उन्मनी - देखे टिप्प्णी पद स ०१०३

त्रिकुटी - देखे टिप्प्णी पद स ०४

अलख निरज - देखे टिप्प्णी पद स ०१४२ ब १६४

सहज समाधि - देखे टिप्पणी पद स ०७

(IV) त्रिवेणी- देखे टिप्प्णी पद म ० ४ , ७

(V) इस पद मे कायायोग और भक्ति कि सुन्दर स्मन्व्य है।

(२०५)

या जोगियो की जुगति जु बूभै,

राम रमै ताकै त्रिभुवन सूभै ॥ टेक ॥

प्रगट कंथा गुपत अधारी,तामै मुरिति जीवनि प्यारो ॥

है प्रभ नेरै खोजै दुरी , ग्यान गुफा मै सीगी पुरी॥

अमार बेलि जो छिन छिन पीवै,कहै कबीर सो जुगिजुगि जीवै ॥