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सर टूट गया [अर्थात् धड़से सिर कट गया। (फिर जब तक कटे हुए लेठित सिर से) मारो ! मारो ! की ध्वनि उच्चरित होती रही (तब तक उसका) धड़ (इस अवाज़ की) ताल पर नाचता रही। यह दृश्य देखकर रुद्र ने भयंकर अट्टहास किया--[ वहाँ भयंकर रुद्र ग्रह दृश्य देखकर दुख के अवेग में रो उठे- ह्योर्नले । नोट–रुद्र का रोना' अर्थ समुचित नहीं है क्योंकि ऐसा वर्णन हमें पुराणों आदि में नहीं मिलता, शिव का अट्टहास ही प्रसिद्ध है ।] और नंदी हाय हाय करने लगा । चंद कवि कहते हैं कि शैल पुत्री पार्वती जी) यह नया महाभारत देखकर चकित रह गई। रू० ७०---अपने हत' बंधु के शव को ढ़ते हुए सोलंकी सारंग (अचानक) खिलजी वाँ के सामने आ गया। वह पहले पंगा (जयचंद) को नृत्य था परन्तु इस अवसर पर चौहान की ओर था। कन्ह् (सारंग के प्राण संकट में देख) दो घोड़ों के कंधों (=पीठ) पर पैर रखकर खड़े हो गये और हाथी के समान चिघारने और गरजने लगे जिससे पृथ्वी, पर्वत और कंदरायें गूज उठीं । (शत्रु का ध्यान अवश्य ही बँट गया और सारंग बच गया । यह कौतुक देखकर) देवताओं ने जय जय का घोष किया और युद्ध की पूजा में (अर्थात् प्रशंसात्मक युद्ध के लिये) पुष्पांजलि दी । एक (सारंग) सारा खेत (=क्षेत्र, युद्ध क्षेत्र) ढूंढ़ता रहा और एक (कन्ह) चिल्लाने की धुन बाँधे रहा । शब्दार्थ-रू० ६१-दुज्जन<दुर्जन । सल' = सालना, कष्ट देना,छेद करना; (सल<सं० शल्य=भाला) } कृरंभ-अगले रू० ८४ की २१वीं पंक्ति में हमें इसका दूसरा नाम माल्हन मिलता है। कुरंभ, पल्हन का भाई या निकट संबंधी था । बंध<बंधु=भाई, संबंधी। पल्हन--पृथ्वीराज का वीर लड़ाकू सामंत था । और संयोगिता अपहरण वाले युद्ध में मारा गया था [रासो सम्यौ ६१, छं० १४६०-६१ तथा--- परे मध्य विपहर । पल्ह फज्जून बंध बर । रज रज तन्न किय हटकि। कटक कमधज्ज कोटि भर || इस सीस संहर्यौ । हथ्थ सों हथ्थ न मुझे यौ । सूर मुझौ सुख हो । वीर वीर रस तक्कयौ ।। मारत श्ररिन कूरंभ कि । ते रवि मंडल भेदियै । डोल्यौन रथ्य सँभुप चल्यौ । कित्तिकला नह देपियै ॥छं० १४६२। गंग डोलि ससि डोलि । डोलि ब्रह्मांड सक्र डुल ।। अष्ट थान दिगपाल । चाल चंचल विचल भो ।।