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पृष्ठ:Sakuntala in Hindi.pdf/४२

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[ACT III.
SAKUNTALA.


कुछ आंच¹³ तुझ में और तेरे बाणों में अब तक ऐसे बनी है जैसे समुद्र में बडवान¹⁴। और जो यह हेतु न होता तो तू भस्म हो चुका था। फिर वियोगियों के हृदय को कैसे जलाता¹5। हे कुसुमायुध स्नेही जनों को तू और चन्द्रमा दोनों विसासी हो । तेरे बाणों को फूल कहना और सुधाकर की किरणों को शीतल वखानना¹6 ये दोनों कलानिधि वियोगियों के लिये असत्य दिखाई देती हैं। क्योंकि हम को कलानिधि आग बरसाता है और तेरे वाण वज सम" लगते हैं । इस रर भी हे मीनकेतन" तू मुझे प्यारा लगता है क्योंकि तू मुझे मृग-नयनी की सुध दिलाता है। हे महाबली पञ्चशर मैं ने तेरी इतनी स्तुति की। तुझे अब भी दया न आई । नहीं। मेरे विलाप ने तेरे बाणों की अनी सौ गुणी पैनी कर दी है । हे मदन यह तुझे योग्य नहीं है कि मेरे हृदय में गम्भीर घाव करने को अपने धनुष की प्रत्यञ्चा कान तक खेंचे । (फिरकर और देखकर) हाय जब यज्ञ समाप्त होगा तब ऋषियों से विदा होकर मैं कहां अपने दुखी जीव को बहलाऊंगा । (उंटी श्वास लेकर) प्रिया के दर्शन विना कोई मुझे धीरज देनेवाला नहीं है । अब उसी को ढूंढूं । (ऊपर देखकर) इस घाम को यारी कहीं" मालिनी के तट पर लताकुञ्जों में सखियों के साथ बिताती होगी। अब वहीं चलूं । फिरकरर और देखकर) मेरी जीवनमूल" यहीं होकर" गई है क्योंकि जिन डालियों से फूल तोड़े हैं उन का दूध भी अभी नहीं सूखा है । (पयन का लगना प्रगट करके) यहां पवन कमलों की सुगन्ध लिये और मालिनी की शीतल तरङ्गों को छुये अदेह की दही देह को स्पर्श करने आती हैफि(रकरकर) कहीं इन्हीं वेतों के लतामण्डल में प्यारी होगी। इन वृक्षों में तौ देखू । (फिरकर और चिन्न लगाकर देखकर अब मेरे नेत्र सफल हुए। बनभावती उस पटिया पर फूल बिछाये पौढ़ी है और सखी सेवा सखी खड़ी हैं । अब चाहो सो हो" इन के मते की बातें सुनूंगा॥ (खड़ा होकर गहरी दृष्टि से देखता हुषा)