सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३०
ज्ञानयोग


भी हमे इसी जगत् मे जीवनधारण तो करना पड़ेगा। अब इसकी मीमांसा कहाॅ है?

जगत् के बाहर जाना होगा, सभी धर्मो के इस उपदेश से ऊपर ऊपर सोचने पर मन मे यही भावना उदित होती है कि शायद आत्महत्या करना ही श्रेयस्कर है। प्रश्न यही है कि जीवन के दुःखो का प्रतिकार क्या है, और इसका जो उत्तर दिया जाता है उससे तो आपातत यही बोध होता है कि जीवन का त्याग करना ही इसका एकमात्र उपाय है। इस उत्तर से मेरे मन मे एक प्राचीन कथा याद पड़ती है। एक मच्छर किसी के मुॅह पर बैठा था। उसके एक मित्र ने उस मच्छर को मारने के लिये इतने ज़ोर से मारा कि वह मनुष्य मर गया, और मच्छर भी मर गया! पूर्वोक्त प्रतिकार का उपाय मानो ठीक इसी प्रणाली का उपदेश देता है।

जीवन दुःखपूर्ण है, यह जगत् दुःखपूर्ण है, यह बात कोई भी व्यक्ति जिसने जगत् को अच्छी तरह जान लिया है, अस्वीकार नही कर सकता। किन्तु सभी धर्म इसका क्या प्रतिकार बताते है? वे कहते है, जगत् कुछ भी नहीं है। इस जगत् के बाहर ऐसा कुछ है जो वास्तविक सत्य है। इसी स्थान पर वास्तव में विवाद प्रारम्भ होता है। इस उपाय से मानो हमारा जो कुछ भी है सभी कुछ नष्ट करके फेक देने का उपदेश देते है। तब फिर यह प्रतिकार का उपाय कैसे होगा? तब क्या कोई उपाय नहीं है? एक उपाय और भी कहा जाता है। वह यह है: वेदान्त कहता है-विभिन्न धर्म जो कुछ कहते है सब सत्य है, किन्तु इसका ठीक ठीक अर्थ क्या है, यह समझना होगा। प्राय लोग विभिन्न धर्मों के उपदेशों को ठीक