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पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२४०

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ज्ञानयोग

मनुष्य को भी मार डालो। किन्तु इसका उत्तर यही है,―तुम विषयों को ही न रक्खो, यह बात नहीं है; आवश्यक वस्तुये, यहाँ तक कि विलास की सामग्री भी न रक्खो, यह बात नहीं है। तुम्हारी जो भी आवश्यक वस्तुये, यहाँ तक कि उनसे अतिरिक्त वस्तुये भी तुम रख सकते हो―इससे कुछ भी क्षति नहीं है। किन्तु तुम्हारा प्रथम और प्रधान कर्तव्य यही है कि तुम्हे सत्य को जानना पड़ेगा, उसको प्रत्यक्ष करना होगा। यह जो धन है―यह किसी का नहीं है। किसी भी पदार्थ में स्वामित्व का भाव मत रक्खो। तुम तो कोई नहीं हो, मैं भी कोई नहीं हूँ, कोई भी कोई नहीं है। सब उसी प्रभु की वस्तुये है; ईशोपनिषद् के प्रथम श्लोक में सभी जगह ईश्वर का स्थापन करने के लिये कहा गया है। ईश्वर तुम्हारे भोग्य धन में है, तुम्हारे मन में जो सब वासनाये उठती है उनमे है, अपनी वासना में रहकर तुम जो जो द्रव्य खरीदते हो उसमे वह है, तुम्हारे सुन्दर वस्त्रो में भी वह है, तुम्हारे सुन्दर अलङ्कारो में भी वह है। इसी प्रकार से विचार करना पड़ेगा। इसी प्रकार सब वस्तुओ को देखना आरम्भ करने पर तुम्हारी दृष्टि में सभी कुछ परिवर्तित हो जायगा। यदि तुम अपनी प्रत्येक गति में, अपने वस्त्रो में, अपनी बोलचाल में, अपने शरीर में, अपने चेहरे में―सभी वस्तुओ में भगवान् की स्थापना कर लो तो तुम्हारी आँखों में सम्पूर्ण दृश्य बदल जायगा और जगत् दुःखमय न लगकर स्वर्ग में परिणत हो जायगा।

"स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है"। वेदान्त कहता है कि वह पहले से ही तुम्हारे भीतर मौजूद है। और सभी धर्म यही बात कहते