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पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/३१५

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अमरत्व

या शृंखलायें आती हैं, वह किसका क्रमसंकोच है? यह उसी सर्वव्यापिनी जगन्मयी जीवनी शक्ति का क्रमसंकोच था, और यह जो क्षुद्रतम जीवाणु नाना प्रकार के जटिल यंत्रों से युक्त उच्चतम बुद्धिशक्ति के आधाररूप मनुष्य के आकार में अभिव्यक्त हो रहा है, कौन सी वस्तु क्रमसंकुचित होकर इस जीवाणु के आकार में स्थित थी? वह सर्वव्यापी जगन्मय चैतन्य ही है—वही उस जीवाणु में क्रमसंकुचित होकर वर्तमान था। वह सम्पूर्ण पहले से ही पूर्ण भाव से वर्तमान था। वह थोड़ा थोड़ा करके बढ़ रहा था यह बात नहीं है। बढ़ने की बात को मन से एकदम निकाल दीजिये। वृद्धि कहने से ही मालूम होता है कि कोई वस्तु बाहर से आ रही है। वृद्धि मानने पर पूर्वोक्त गणित के सिद्धान्त को अर्थात् जगत् की शक्तिसमष्टि सर्वदा सर्वत्र समान है, इसे अस्वीकार करना होगा। इस जागतिक सर्वव्यापी चैतन्य की कभी वृद्धि नहीं होती, यह तो सदा ही पूर्ण भाव से विद्यमान था, केवल अभिव्यक्ति यहाँ पर हुई। विनाश का अर्थ क्या है? यह एक गिलास है। मैंने इसको भूमि पर फेंक दिया और वह चूर चूर हो गया। अब प्रश्न है कि गिलास क्या हुआ? वह केवल सूक्ष्म रूप में परिणत हो गया, बस। तो विनाश का अर्थ हुआ स्थूल की सूक्ष्म भाव में परिणति। उसके उपादानभूत परमाणु एकत्र होकर गिलास नामक कार्य में परिणत हुए थे। वे अब अपने कारण में चले गये और इसीका नाम विनाश है अर्थात् कारण में लय हो जाना। कार्य क्या है? कारण का व्यक्त भाव। अन्यथा कार्य और कारण में स्वरूपतः कोई भेद नहीं है। फिर इसी गिलास की बात लीजिये। यह अपने उपादानों और अपने निर्माता की इच्छा के महयोग से बना है। ये दोनों ही उसके कारण है और उसमें वर्तमान