सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५९
मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

हूँ तभी मैं उसकी―जगत् के अन्यान्य शरीरो के सुख-दुःख की ओर दृष्टि बिना डाले ही―रक्षा करने की तथा उसका सौन्दर्य सम्पादन करने की इच्छा करता हूँ। उस समय तुम और मैं भिन्न हो जाता हूँ। और जब ही यह भेद-ज्ञान आता है तभी यह सब प्रकार के अमंगल का द्वार खोल देता है और सब प्रकार के दुःखों की उत्पत्ति करता है। अत: पूर्वोक्त ज्ञानलाम से यह लाभ होगा कि आजकल की भनुष्य-जाति का एक बहुत छोटा अश भी यदि क्षुद्र भाव का त्याग कर सके तो कल ही यह संसार स्वर्गरूप में परिणत हो जायगा, किन्तु नाना प्रकार के यन्त्रो के तथा बाह्य जगत् सम्बन्धी ज्ञान की उन्नति से यह कभी नहीं हो सकता। जिस प्रकार अग्नि में तेल डालने से अग्निशिखा और भी वर्धित होती है उसी प्रकार इन सब वस्तुओ से दुःखों की ही वृद्धि होती है। आत्मज्ञान के अतिरिक्त जितना भी भौतिक ज्ञान उपार्जित किया जाता है वह केवल अग्नि में घृताहुति मात्र है। इससे केवल स्वार्थपर लोगों के हाथों में दूसरों का कुछ लेने के लिये, दूसरों के लिये अपना जीवन बिना दिये दूसरो के कन्धो पर बैठ कर खाने के लिये एक और यंत्र एक और सुविधा मात्र आ जाती है।

एक और प्रश्न है―क्या इसे कार्य रूप में परिणत करना सम्भव है? वर्तमान समाज में क्या इसको कार्य रूप में परिणत किया जा सकता है? इसका उत्तर यही है कि सत्य―प्राचीन अथवा आधुनिक किसी समाज का भी सम्मान नहीं करता। समाज को ही सत्य का सम्मान करना पड़ेगा, अन्यथा ध्वस अवश्यम्भावी है। सत्य ही समस्त प्राणियो तथा समाज का मूल आधार है, अतः सत्य कभी