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पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/७०

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ज्ञानयोग

तुम्हारे भीतर है। जो कुसंस्कार तुम्हारे मन को ढके रखता है, उसे भगा दो। साहसी बनो। सत्य को जान कर उसे जीवन में परिणत करो, चरम लक्ष्य बहुत दूर हो सकता है, किन्तु 'उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान् निबोधत।"






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