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पृष्ठ:Yuddh aur Ahimsa.pdf/१६

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समझौते का कोई प्रश्न नहीं


मैं आपको पत्र लिखूँ । लेकिन इस खयाल से कि मेरे द्वारा भेजा गया पत्र गुस्ताखी में शुमार होगा, मैंने उनकी बात कुछ दिन तक न मानी । कोई शक्ति मुझसे कहती है कि मुझे विचार करना चाहिए और अपील का नतीजा कुछ भी हो, अपील मुमे करनी ही चाहिए । यह स्पष्ट है कि आप विश्व में एक ऐसे व्यक्ति हैं जो युद्ध को रोक सकते हैं। युद्ध होने पर यह सम्भव है कि मानवता चतीण होकर बर्बरता में परिवर्तित हो जाये । क्या आप एक वस्तु के लिए, जिसे आप कितनी भी कीमती क्यों न समझते हों, यह मूल्य देंगे ही ? क्या आप एक ऐसे आदमी की अपील को सुनेंगे जिसने खुद ही जानबूझकर लड़ाई को छोड़ दिया है, परन्तु उसे काफी सफलता नहीं मिली ? पत्र लिखकर आपको मैंने कष्ट दिया हो, तो मैं आशा करता हूँ कि आप मुझे क्षमा करेंगे !”

क्या ही अच्छा होता कि हेर हिटलर अब भी विवेक से काम लेते तथा तमाम समझदार आदमियों की अपील, जिनमें जर्मन भी हैं, सुनते । मैं यह स्वीकार करने के लिए तैयार नही हुँ कि विध्वंस के डर से लंडन-जैसे भारी शहरों के खाली होने की बात जर्मन लोग शाँत रहकरसोच सकते होंगे । वे शांति के साथ इस प्रकार के अपने विध्वंस की बात नहीं सोच सकते । इस मौके पर मैं भारत के स्वराज्य की बात नहीं सोच रहा हूँ । भारत में स्वराज्य जब होगा तब होगा। लेकिन जब इंग्लैण्ड और फ्रांस की हार हो गयी तथा जब उन्हें विध्वस्त जर्मनी के ऊपर फतह मिल गयी तो उसका क्या मूल्य होगा ? मालूम ऐसा ही पड़ता है कि जैसे हिटलर किसी परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते और केवल पशुबल को ही