हिंदी साहित्य का इतिहास/भक्तिकाल- प्रकरण ६ फुटकल कवि (सेनापति)
[ २२३ ] (१९) सेनापति––ये अनूपशहर के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम गंगाधर, पितामह का परशुराम और गुरु का नाम हीरामणि दीक्षित थी। इनका जन्मकाल संवत् १६४६ के आस-पास माना जाता है। ये बडे़ ही सहृदय कवि थे। ऋतुवर्णन तो इनके ऐसा और किसी शृंगारी कवि ने नहीं किया है। इनके ऋतुवर्णन में प्रकृति-निरीक्षण पाया जाता है। पदविन्यास भी इनका ललित है। कहीं कहीं विरामो पर अनुप्रास का निर्वाह और यमक का चमत्कार भी अच्छा है। सारांश यह कि अपने समय के ये बड़े भावुक और निपुण कवि थे। अपना परिचय इन्होंने इस प्रकार दिया है––
दीक्षित परशुराम दादा हैं, विदित नाम,
जिन कीन्हें जश, जाकी विपुल बडाई है।
गंगाधर पिता गंगाधर के समान जाके,
गंगातीर बसति 'अनूप' जिन पाई है॥
महा जानमनि, विद्यादान हू में चिंतामनि,
हीरामनि दीक्षित तें पाई पंडिताई है।
सेनापति सोई, सीतापति के प्रसाद जाकी,
सब कवि कान लै सुनते कविताओं है॥
इनकी गर्वोक्तियां खटकती नहीं, उचित जान पड़ती हैं। अपने जीवन के पिछले काल में ये संसार से कुछ विरक्त हो चले थे। जान पड़ता है कि मुसलमानी दरबारों में भी इनका अच्छा मान रहा, क्योंकि अपनी विरक्ति की झोंक में इन्होंने कहा है––
केतो करौ कोइ, पैसे करम लिखोइ, तातें,
दूसरी न होइ, उर सोइ ठहराइए।
आधी तें सरस बीति गई है बरस, अब
दुर्जन दरस बीच रस न बढ़ाइए॥
चिंता अनुचित, धरु धीरज उचित,
सेनापति ह्वै सुचित रघुपति गुन गाइए।
चारि-बर-दानि तजि पायँ कमलेच्छन के,
पायक मलेच्छन के काहे को कहाइए॥
शिवसिंह-सरोज में लिखा है कि पीछे इन्होंने क्षेत्र-संन्यास ले लिया था। इनके भक्तिभाव से पूर्ण अनेक कवित्त 'कवित्तरत्नाकर' में मिलते है। जैसे––
महा मोह-कंदनि में जगत-जकंदनि में,
दिन दुख-दंदनि में जाते है बिहाय कै।
सुख को न लेस है कलेस सब भाँतिन को,
सेनापति याहीं तें कहत अकुलाय कै॥
आवै मन ऐसी घरबार परिवार तजौं,
डारौं लोकलाज के समाज बिसराय कै।
हरिजन पुंजनि में वृंदावन-कुंजनि में,
रहौं बैठि कहूँ तरवर-तर जाय कै॥
ही जान पड़ते हैं, क्योंकि स्थान स्थान पर इन्होंने 'सियापति', 'सीतापति','राम' आदि नामों का ही स्मरण किया है। कवित्त-रत्नाकर इनका सबसे पिछला ग्रंथ जान पड़ता है, क्योंकि उसकी रचना संवत् १७०६ में हुई है, यथा––
संवत् सत्रह सै छ में, सेइ सियापति पाय।
सेनापति कविता सजी, सज्जन सजौ सहाय॥
इनका एक ग्रंथ 'काव्य-कल्पद्रुम' भी प्रसिद्ध है।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इनकी कविता बहुत ही मर्मस्पर्शिनी और रचना बहुत ही प्रौढ़ प्रांजल है। जैसे एक ओर इनमें पूरी भावुकता थी वैसे ही दूसरी ओर चमत्कार लाने की पूरी निपुणता भी। श्लेष का ऐसा साफ उदाहरण शायद ही और कहीं मिले––
नाहीं नाहीं करै, थोरो माँगे सब दैन कहै,
मंगन को देखि पट देत बार बार है।
जिनके मिलत भली प्रापति को घटी होति,
सदा सुभ जनमत भावै, निरधार है॥
भोगो ह्वै रहत बिलसत अवनी के मध्य,
कन कन जोरै, दानपाठ परवार है।
सेनापति वचन की रचना निहारि देखौ,
दाता और सूम दोऊ कीन्हें इकसार है॥
भाषा पर ऐसा अच्छा अधिकार कम कवियों को देखा जाता है। इनकी भाषा में बहुत कुछ माधुर्य ब्रजभाषा का ही है, संस्कृत पदावली, पर अवलंबित नहीं। अनुप्रास और यमक की प्रचुरता होते हुए भी कहीं भद्दी कृत्रिमता नहीं आने पाई है। इनके ऋतुवर्णन के अनेक कवित्त बहुत से लोगों को कंठ है। रामचरित-संबधी कवित्त भी बहुत ही ओजपूर्ण है। इनकी रचना के कुछ नमूने दिए जाते हैं––
वानि सौं सहित सुबरन मुँह रहै जहाँ,
धरत बहुत भाँति अरथ-समाज को।
संख्या करि लीजै अलंकार हैं अधिक यामैं,
राखौं मति ऊपर सरस ऐसे माज को॥
सुनौ महाजन! चोरी होति चार चरन की,
तातें सेनापति कहै तजि उर लाज को।
लीजियो बचाय ज्यों चुरावै नाहिं कोउ सौंपी,
वित्त की सी थाती मैं कवित्तन के व्याज को॥को
वृष को तरनि, तेज सहसौ करनि तपै,
ज्वालनि के जाल बिकराल बरसत है।
तचति धरनि, जग झुरत झरनि सीरी
छोह को पकरि पंथी पंछी बिरमत है॥
सेनापति नेक दुपहरी ढरकत होत
धमका विषम जो न पात सरकत है।
मेरे जान पौन सीरे ठौर को पकरि काहू
घरी एक बैठी कहूँ घामै वितवत है॥
सेनापति उनए नए जलद सावन के
चारिहू दिसाच घुमरत भरे तोय कै।
सोभा सरसाने न बखाने जात कैहूँ भाँति
आने हैं पहार मानों काजर के ढोय कै॥
घन सों गगन छप्यो, तिमिर सधन भयो,
देखि न परत मानो रवि गयो खोय कै।
चारि मास भरि स्याम निसा को भरम मानि,
मेरे जान याही तें रहत हरि सोय के॥
दूरि जदुराई सेनापति सुखदाई देखौ,
आई ऋतु पावस न पाई प्रेम-पतियाँ।
धीर जलधर की सुनत धुनि धरकी औ,
दरकी सुहागिन की छोह-भरी छतियाँ॥
आई सुधि बर की, हिय में आनि खरकी,
सुमिरि प्रानप्यारी वह प्रीतम की बतियाँ।
बीती औधि आवन की लाल मनभावन की,
डग भई बावन की सावन की रतियाँ॥
बालि को सपूत कपिकुल-पुरहूत,
रघुवीर जू को दूत भरि रूप विकराल को।
युद्धमद गाढ़ो पाँव रोपि भयो ठाढ़ो, सेना-
पति बल बाढ़ो रामचंद्र भुवपाल को॥
कच्छप कहलि रह्यो, कुंडली टहलि रह्यो,
दिग्गज दहलि त्रास परो चकचाल को।
पाँव के धरत अति भार के परत भयो––
एक ही परत मिलि सपत-पताल को॥
रावन को वीर, सेनापति रघुवीर जू की
आयो है सरन, छाँड़ि ताहि मद-अंध को।
मिलत ही ताको राम कोप कै करी है ओप,
नाम जोय दुर्जनदलन दीनबंधु को॥
देखौ दानवीरता-निदान एक दान ही में,
दीन्हें दोऊ दान, को बखानै सत्यसंध को।
लंका दसकंधर को दीनी है विभीषन को,
संका विभीषन की सो दीनी दसकंध को॥
सेनापतिजी के भक्तिप्रेरित उद्गार भी बहुत अनूठे और चमत्कारपूर्ण है। "अपने करम करि हौ ही निबहौंगो तौ तौ हौ ही करतार, करतार तुम काहे के?" वाला प्रसिद्ध कवित्त इन्हीं का है।
(२०) पुहकर-कवि––ये परतापपुर (जिला मैनपुरी) के रहनेवाले थे, [ २२८ ]पर गुजरात में सोमनाथजी के पास भूमि-गाँव में रहते थे। ये जाति के कायस्थ थे और जहाँगीर के समय में वर्तमान थे। कहते हैं कि जहाँगीर ने किसी बात पर इन्हें आगरा में कैद कर लिया था। वहीं कारागार में इन्होंने 'रसरतन' नामक ग्रंथ संवत् १६७३ में लिखा जिस पर प्रसन्न होकर बादशाह ने इन्हें कारागार से मुक्त कर दिया। इस ग्रंथ में रंभावती और सूरसेन की प्रेम-कथा कई छंदों में, जिनमें मुख्य दोहा और चौपाई हैं, प्रबंध-काव्य की साहित्यिक पद्धति पर लिखी गई है। कल्पित कथा लेकर प्रबंध-काव्य रचने की प्रथा पुराने हिंदी-कवियों में बहुत कम पाई जाती है। जायसी आदि सूफी शाखा के कवियों ने ही इस प्रकार की पुस्तके लिखी है, पर उनकी परिपाटी बिल्कुल भारतीय नहीं थी। इस दृष्टि से 'रसरतन' को हिंदी-साहित्य में एक विशेष स्थान देना चाहिए।
इसमें संयोग और वियोग की विविध दशाओं का साहित्य की रीतिपर वर्णन है। वर्णन उसी ढंग के है जिस ढंग के शृंगार के मुक्तक-कवियों ने किए है। पूर्वराग, सखी, मंडन, नखशिख, ऋतु-वर्णन आदि शृंगार की सब सामग्री एकत्र की गई है। कविता सरस और भाषा प्रौढ़ है। इस कवि के और ग्रंथ नहीं मिले हैं पर प्राप्त ग्रंथ को देखने से ये एक अच्छे कवि जान पड़ते है। इनकी रचना की शैली दिखाने के लिये ये उद्धृत पद्य पर्याप्त होंगे––
चले मैमता हस्ति झूमत मत्ता। मनों बद्दला स्याम सायै चलंता॥
बनी बागिरी रूप राजत दंता। मनै वग्ग आषाढ़ पाँतै उदंता॥
लसै पीत लालैं, सुढ्यक्कैं ढलक्कैं। मनों चंचला चौंधि छाया छलक्कैं॥
चंद की उजारी प्यारी नैनन तिहारे, परे
चंद की कला में दुति दूनी दरसाति है।
ललित लतानि में लता सी गहि सुकुमारि
मालती सी फूलै जब मृदु मुसुकाति है॥
पुहकर कहै जित देखिए विराजै तित
परम विचित्र चारु चित्र मिलि जाति है।
आवै मन माहि तब रहै मन ही में गड़ि,
नैननि विलोके बाल नैननि समाति है॥
संवत् सोरह सै बरस, बीते अठतर सीति। कातिक सुदी सतमी गुरौ, रचै ग्रंथ करि प्रीति॥
इसके अतिरिक्त 'सिंहासन-बत्तीसी' और 'बारहमासा' नाम की इनकी दो पुस्तकें और कहीं जाती है। यमक और अनुप्रास की ओर इनकी कुछ विशेष प्रवृत्ति जान पड़ती है। इनकी रचना शब्द-चमत्कारपूर्ण है। एक उदाहरण दिया जाता है––
काके गए बसन? पलटि आए बसन सु,
मेरो कछु बस न रसन उर लागें हौ।
भौहैं तिरछौहैं कवि सुंदर सुजान सोहैं,
कछु अलसौहैं गैाँ हैं जाके रस पागे हौ॥
परसौं मैं पाय हुते परसौं मैं पाये गहि
परसौं वे पाय निसि जाके अनुरागे हौ।
कौन बनिता के हौ जू कौन बनिता के हौ सु,
कौन बनिता के बनि, ताके संग जागे हौ?
तब लड़की बोली तिसे जी, राखी मन धरि रोस।
नारी आणों काँ न बीजी द्यो मत झूठो दोस॥
हम्मे कलेबी जीणा नहीं जी, किसूँ करीजै बाद।
पदमणि का परणों न बीजी, जिमि भोजन होय स्वाद॥
इस पर रत्नसेन यह कहकर उठ खड़ा हुआ––
राणों तो हूँ रतनसी, परणूँ पदमिनी नारि।
राजा समुद्र तट पर जा पहुँचा जहाँ से औघड़नाथ सिद्ध ने अपने योगबल से उसे सिंहलद्वीप पहुँचा दिया। वहाँ राजा की बहिन पद्मिनी के स्वयंवर की मुनादी हो रही थी––
सिंहलदीप नो राजियो रे सिंगल सिंह समान रे। तसु बहण छै पदमणि रे, रूपे रंभ समान रे॥
जोबन लहरयाँ जायछे रे, ते परणूँ भरतार रे। परतज्ञा जे पूरवै रे, तासु बरै, बरमाल रे॥
राज अपना पराक्रम दिखाकर पद्मिनी को प्राप्त करता है।
इसी प्रकार जायसी के वृत्त से और भी कई बातों मे भेद है। इस चरित्र की रचना गीति-काव्य के रूप में समझनी चाहिए।
सूफी-रचनाओं के अतिरिक्त
भक्तिकाल के अन्य आख्यान-काव्य
आश्रयदाता राजाओं के चरित-काव्य तथा ऐतिहासिक या पौराणिक आख्यानकाव्य लिखने की जैसी परंपरा हिंदुओं में बहुत प्राचीन काल से चली आती थी वैसी पद्यबद्ध कल्पित कहानियाँ लिखने की नहीं थी। ऐसी कहानियाँ मिलती है, पर बहुत कम। इसका अर्थ यह नहीं कि प्रसंगों या वृत्तों को कल्पना की प्रवृत्ति कम थी। पर ऐसी कल्पना किसी ऐसिहासिक या पौराणिक पुरुष या घटना का कुछ––कभी कभी अत्यंत अल्प––सहारा लेकर खड़ी की जाती थी। कहीं कहीं तो केवल कुछ नाम ही ऐतिहासिक या पौराणिक रहते थे, वृत्त सारा कल्पित रहता था, जैसे, ईश्वरदास कृत 'सत्यवती कथा'।
आत्मकथा का विकास भी नहीं पाया जाता। केवल जैन कवि बनारसीदास का 'अर्धकथानक' मिलता है। [ २३१ ]नीचे मुख्य आख्यान-काव्यों का उल्लेख किया जाता है-
ऐतिहासिक-पौराणिक | कल्पित | आत्म-कथा |
१ रामचरितमानस-मानस (तुलसी) | १ ढोला मारु रा दूहा (प्राचीन) | १ अर्धकथानक (बनारसीदास) |
२ हरिचरित्र (लालचदास) | २ लक्ष्मणसेन पद्मावती-कथा (दामोकवि) | |
३ रुक्मिणी-मंगल (नरहरि) | ३ सत्यवती-कथा (ईश्वरदास) | |
४ „ (नंददास) | ४ माधवानल कामकंदला (आलम) | |
५ सुदामाचरित्र (नरोत्तमदास) | ५ रसरतन (पुहकर कवि) | |
६ रामचंद्रिका (केशवदास) | ६ पद्मिनीचरित्र (लालचंद) | |
७ वीरसिंहदेव-चरित (केशव) | ७ कनकमंजरी (काशीराम) | |
८ बेलि क्रिसन रुकमणी री (जोधपुर के राठौड़ राजा प्रिथीराज) | |
ऊपर दी हुई सूची में 'ढोला मारू रा दूहा' और 'बेलि क्रिसन रुकमणी री' राजस्थानी भाषा में हैं। ढोला मारू की प्रेमकथा राजपुताने में बहुत प्रचलित है। दोहे बहुत पुराने हैं, यह बात उनकी भाषा से पाई जाती है। बहुत दिनों तक मुखाग्र ही रहने के कारण बहुत से दोहे लुप्त हो गए थे, जिससे कथा की शृंखला बीच बीच में खंडित हो गई थी। इसी से संवत् १६१८ के लगभग जैनकवि कुशल-लाभ ने बीच बीच में चौपाइयाँ रचकर जोड़ दीं। दोहों की प्राचीनता का अनुमान इस बात से हो सकता है कि कबीर की साखियों में ढोला मारू के बहुत से दोहे ज्यों के त्यों मिलते हैं।
'बेलि क्रिसन रुकमणी री' जोधपुर के राठौड़ राजवंशीय स्वदेशाभिमानी पृथ्वीराज की रचना है जिनका महाराणा प्रताप को क्षोभ से भरा पत्र लिखना इतिहास-प्रसिद्ध है। रचना प्रौढ़ भी है और मार्मिक भी। इसमें श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह की कथा है।
'पद्मिनी-चरित्र' की भाषा भी राजस्थानी मिली है।