गाँधीजी हसा या दंगे तो होने ही नहीं चाहिए थे। आज तो मंत्रियोंकी बहुत बड़ी शक्ति काँग्रेसथादियोंकी मॉर्म और विरोधकों निबटानेसें खर्च होती है । अगर मंत्री लोकप्रिय नहीं है, तो उन्हें बरखास्त किया जा सकता है, ओर कर देना चाहिए। इसके बजाय हो क्या रहा हैँ कि उन्हें तोकाम करने दिया जाता है, पर बहुतसे कॉँप्रसवादियोंका उन्हें सक्रिय सहयोग नहीं मिलता ! दूसरे सब उपायोंको खलास किये बगेर आखिरी कदम उठाना सत्याग्रहके हुर एफ
सियगके बिरुद्ध है । इसके जवाबमें कुछ औचित्यके साथ यह जरूर कहा जा सकता हैकि सेनेजो शर्ते बनाया हैंउन सबको पुरा करनेका अगर आश्रह्व रक्सा गया, तो सविनय कामून-भंग असंभव ही हो जायगा । क्या यह आपत्ति वजनवार कही जा सकती ह. ? हरएक कामको स्वीकार करनके साथ
द्र्ते तोउसमें रहती ही है। सत्याग्रह इसका कोई अपवाद नहीं। पर मेरी अन्तरात्मा मुझसे कहती है कि मोजूदा असंभव स्थितिर्में छुटकारा पानेके लिए सत्याग्रहका कोई-स-कोई सक्रिय तरीक--यहू जरूरी नहीं कि वह सविनय भंग ही हो-“सिलना ही चाहिएं। हिटुस्तान आज ऐसी असंभव स्थितिका सासना कर रहा है, जो बहुत दिन नहीं चल सकती । समझें भा सकने रायक समयके अन्दर था तो उसे अधहिसक लड़ाईका कोई-न-कोई तरीका दूंढ़ निका-
लगा ही होगा या उसे हिंसा या अराजकतासों फेसना पड़ेगा । हरिजन सेवक १ जुलाई १९३९
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“सत्य विधायक है, अहिया निषेधात्मक है । सत्य वस्तु का साक्षी है; अहिसा वस्तु होने पर भी उसका निषेध करती है । सत्य है भसत्य
नहीं है। हिंसा है; अहिंसा नहीं है। फिर भी अहिंसा ही 'होमा चाहिये । यही परम धर्म
है। सत्य स्वयंसिद्ध है। अहिंसा उसका सम्पूर्ण फू है; रात्य
में बहू छिपी हुई है। वह सत्य कीतरह व्यक्त नहींहै[” गांधीजी
श्ऊद