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पृष्ठ:आँधी.djvu/११३

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आँँधी


जानते हो ? जब कुलियों के लिए इसी सीली गन्दी और दुर्गधमयी भूमि में एक सहानुभूति उत्पन्न हुई थी तब मुझे यह का अनुभव हुआ था कि यह सहानुभूति भी चिरायँध से खाली न थी ! मुझे एक सहायक मिले थे और मैं यहाँ से थोड़ी दूर पर उनके घर रहने लगा था।

नीरा से आवन न रहा गया । वह बोल उठी– बाबा चुप न रहोगे खांसी आने लगेगी।

ठहर नीरा! हा तो महाशय जी मैं उनके घर रहने लगा था और उन्हाने मेरा आतिथ्य साधारणत अच्छा ही किया । एक ऐसी ही काली रात थी। बिजली बादलों में चमक रही थी और मैं पेट भर कर उस ठण्डी रात में सुख की झपकी लेने लगा था। इस बात को बरसों हुए तो भी मुझे ठीक स्मरण है कि मैं जैसे भयानक सपना देखता हुआ चौंक उठा । नीरा चिल्ला रही थी ! क्यों नीरा !

अब नीरा हताश हो गई थी और उसने बूढ़े को रोकने का प्रत्यक्ष छोड़ दिया था। वह एकटक बूढ़े का मुह देख रही थी।

बुड्ढे ने फिर कहना आरम्भ किया –हा तो नीरा चिल्ला रही थी। मैं उठकर देखता हूँ तो मेरे यह परम सहायक महाशय इसी नीरा को दोनों हाथ से पकड़ कर घसीट रहे थे और यह बेचारी छूटने का व्यर्थ प्रयास कर रही थी। मैंने अपने दोनों दुर्बल हाथों को उठा कर उसे नीच उपकारी के ऊपर दे मारा । वह नीरा को छोड़कर पाजी बदमाश निकल मेरे घर से कहता हुआ मेरा अंकिचन सामान बाहर फकने लगा। बाहर ओले सी बँदें पड़ रही थी और बिजली कौंधती थी। मैं नीरा को लिए सदी से दांत किटकिटाता हुआ एक टूठे वृक्ष के नीचे रात भर बैठा रहा। उस समय वह मेरा ऐश्वर्यशाली सहायक बिजली के लहरों की गर्मी में मुलायम गद्द पर सुख की नींद सो रहा था । यद्यपि मैं उसे लौट कर देखने नहीं गया तो भी मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि उसके मुख में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित करने का दण्ड देने के