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पृष्ठ:आलम-केलि.djvu/११२

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गोपी विरह जरि जरि रहै मेरी छाती वरि परि उठे, • 'पालम' दिनहि छिन छौना - विनु छीजिये । गहरू न लाड जिनि मोहिं अकलाउ भाउ," चलह महर मथुरा ही घर कीजिये ॥२२५॥ कपिन को पेम देखि छाती सो लगाउँछौना, i: चंचरू न देखें तौलों गैया न पेन्दाति है। चिरिया की चाह देखि चौचह में चारो राखै, 1. चेटुश्रा' की चाह यिनु' सोऊ न श्रघाति है। 'पालमा 'कंटिन तेरो हियो 'हो सराहों नन्द, चन्दहि पिछौड़ी छाँडि लायो कारी राति है। , हम निरमोही मोही बनके पखेरू पर, • बालक वियोगु कहूँ विपद विहाति है ॥२२६॥ । 'गोपी विरह . दिये हक हुलसी है, औधि है न आये रि, ' हेरि मग हारी ताते भई तनु सोनी है। सालमा सुकवि थकी विकल चयारि लागे, मारि मैनः सकल सकेलि बिया दीनी है। rammar mmm........... . १-ना-चिडियामा क्या। ~ --- -~ ~