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डाक्टर साहब की घड़ी

उसके हाथ में एक चतुर कारीगर से एक स्प्रिंग लगवाया था, जिसकी ऐसी व्यवस्था थी कि घड़ी हमेशा उस पुतली के उसी हाथ में रक्खी रहती थी। ठीक समय पर घड़ी के हीरे पर स्प्रिङ्ग का दबाव पड़ता तो घड़ी मे ताल स्वर युक्त मधुर सङ्गीत की ध्वनि निकलती। उस समय जैसे वह प्रस्तर मूर्ति ही मुखरित हो उठती थी। मित्रगण घड़ी को यह चमत्कार देख, जब आश्चर्य-सागर मे गोते खाने लगते तो डाक्टर गर्वोन्नत नेत्रों से कभी घड़ी को और कभी मित्रों को घूर घूर कर मन्द मन्द मुसकराया करते थे।

(२)

सावन का महीना था। रिमझिम वर्षा हो रही थी। ठण्डी हवा बह रही थी। काले-काले मेघ आकाश से छा रहे थे, बीच-बीच मे गंभीर गर्जन हो रहा था। चारो ओर हरियाली अपनी छटा दिखा रही थी। दिन का तीसरा प्रहर था। डाक्टर साहब अपने तीन घनिष्ट मित्रों के साथ उसी ड्राइंगरूम से बैठे आनन्द से धीरे-धीरे वार्तालाप कर रहे थे। उन मित्रों मे एक मेजर भार्गव थे, दूसरे दीवान पारख थे और तीसरे एक नवयुवक मिस्टर चक्रवर्ती आई° सी° एस° थे। एका-एक घड़ी मे से मधुर गूँज उठी। मित्र-मंडली चकित होकर घड़ी की ओर देखने लगी डाक्टर साहब आँखे बन्द किये सोफे पर ओढ़क कर उस मधुर स्वर-लहरी को जैसे कानों से पीने लगे। जब घड़ी का संगीत बन्द हुआ तो मिस्टर चक्रवती ने कपाल पर आँखे चढ़ाकर कहा—"अद्भुत घड़ी है यह आप की डाक्टर साहब।" यह तो मानो घड़ी की कुछ तारीफ ही न थी। डाक्टर ने सिर्फ मुस्करा दिया। मेजर साहब ने कहा—"अद्भुत? अजी, इस घडी का तो एक इतिहास है।" फिर उन्होंने डाक्टर की ओर मुह कर के कहा—"वह सूबेदार साहब वाली घटना तो इसी घड़ी से सम्बन्ध रखती है न?"