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आवारागढ़


तीनों के बैठ जाने पर राजेन्द्र ने कहा—"रजनी अभी तक तुम अपने कमरे में क्या कर रही थीं?"

"मै विद्रोह कर रही थी।" रजनी ने तिरछी नजर से भाई को घूर कर और ओठों पर वैसी ही मुस्कान भर कर कहा।

"बाप रे, विद्रोह, जरा सोच समझ कर कोई बात कहना, दिलीप के पिता सी° आई° डी° के डिप्टी सुपरिटेण्डेण्ट है।"

"मै तो खुला विद्रोह करती हूँ, गुप्त षडयन्त्र नहीं।"

"किसके विरुद्ध यह खुला विद्रोह है?"

"तुम्हारे विरुद्ध।"

"मेरे विरुद्ध? मैंने क्या किया है।"

"तुम पुरुष हो न?"

"इस मे मेरा क्या अपराध है, मुझे रजनी बनने में कोई उज्र नही, यदि तुम राजू बन जा सको।"

"मै पुरुष नहीं बनना चाहती, पुरुषो के विरुद्ध विद्रोह किया चाहती हूँ।"

"किसलिये?"

"इसलिये कि पुरुष क्यों सब बातों में सर्व-श्रेष्ठ बनते हैं, स्त्रियां क्यों उनसे हीन समझी जाती हैं?"

दिलीप अब तक चुप बैठा था, अब वह जोश में आकर हथेली पर मुक्का मार कर बोला "ब्रेवो, रज्जी मै तुम्हारे साथ हूँ।"

"मगर मै तुम दोनों का मुकाबिला करने को तैयार हूँ।"

"पुरुष श्रेष्ठ हैं और श्रेष्ठ रहेंगे।" राजेन्द्र ने पैंतरा बदल कर नकली क्रोध और गम्भीरता से कहा। फिर उसने जरा हँस कर कहा "मगर यह विद्रोह उठा कैसे रजनी?"

रज्जी ने नथुने फुला और भौहों मे बल डाल कर कहा—"कल से अम्माँ ने और बाबू जी ने घर भर को सिर पर उठा