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चिट्ठी की दोस्ती

मेरे पास कोई क्यों आने लगा? महीनो के महीने बीत जाते हैं, मैं अकेला अपने घर मै उदास, सुस्त बैठा कुछ सोचता रहता हू। सोचने की बहुत-सी बातें नही हैं, सिर्फ यही कि मनुष्य जीता क्यों है? काम-काज के संकट में पिसता क्यों है। पाप-पुण्य के जञ्जाल में उलझता क्यों है? अपनी और पराई दुनिया बनाता क्यों हैं? कोई २५ वर्ष हुए—जब से मन्नू की माँ मरी है, ऐसा मालूम होता है कि संसार मे हमेशा सन्ध्या काल ही रहता है, प्रभात कभी होता ही नहीं, परन्तु एम° ए° फ़ाइनल करने के बाद जब एक ही हफ्ते बाद मुन्ना भी एकाएक चल बसा, तब से रात ही रात नजर आती है, जीवन की इस अंधेरी रात में सूरज और चाँद, टिमटिमाते दिये और इष्टमित्र सब दूर के चम-चम चमकते तारे से प्रतीत होते हैं। मै मशीन की भाँति कालेज से घर और घर से कालेज गत २५ बरस से जाता-आता रहा हूँ। और भी कही दुनिया है, यह मै अब भूलसा गया हूँ।

परन्तु मिस्टर लाल की बात दूसरी है, उनके सीने मे एक धड़कता हुआ हृदय है, जीवन उनके लिये आशा और उल्लास से परिपूर्ण एक ज्योति की लौ है, इसीसे उनके आने से मुझ से भी जैसे जीवन का कुछ स्पन्दन आ गया है, वे जब वाते करते-करते खिलखिला कर हँसते हैं तब मेरे भी सूखे होठों में हँसी की एक अनभ्यस्त रेखा फूट पड़ती है और मेरे गालों की झुर्रियां जैसे मुखरित हो उठती है।

लाल ने जब प्रेम के एक से एक बढ़ कर अनोखे साहसपूर्ण किस्से सुनाये, तो उन्हें सुन-सुन कर मन कैसा कुछ हो उठा। मैने कहा—"मिस्टर लाल, प्रेम इतना सुलभ और जीवन के इतना निकट है, यदि यह मुझे मालूम होता तोॱॱॱॱ?' 'तो?'—