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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/९५

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११
ग्यान बिरह कौ अंग


फाडि पुटोला धज करौं, कामलड़ी पहिराउं । जिहिं जिहि भेषां हरि मिलै, सोइ सोइ भेष कराउं ॥ ४१ ॥ नैन हमारे जलि गए, छिन छिन लाई तुझ । नां तूं मिले न मैं खुसी, ऐसी बेदन मुझ ॥ ४२ ।। भेला पाया श्रम सौं, भौसागर के मांहि । जे छोडौं तौ डूबिही, गहैं। त डसिय बांह ।। ४३ ।। रैणा दूर बिछोहिया, रहु रे संपम झूरि । देवलि देवलि धाहडी, देसी ऊग सूरि ।। ४४ ॥ सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै । दुखिया दास कबोर है, जागै अरू रोवै ॥ ४५ ॥ ११२ ।। (४) ग्यान बिरह की अंग दीपक पावक प्राणिया, तल भी प्रांण्या संग । तीन्यू मिलि करि जोइया, (तब) उडि उडि पड़ें पतंग ॥ १ ॥ मारया है जे मरेगा, बिन सर थोथी भालि । पड़या पुकारै बिछ तरि, प्राजि मरै कै काल्हि ॥ २ ॥ हिरदा भीतरि दो बलै, धूवा न प्रगट होइ। जाकै लागी सौ लखै, के जिहि लाई सोइ ।। ३ ।। झल ऊठी झोली जली, खपरा फूटिम फूटि । जोगी था सो रमि गया, पास णि रही बिभूत ॥ ४ !। प्रगनि जु लागी नीर मैं, कंदू जलिया झारि । उतर दषिण के पंडिता, रहे बिचारि बिचारि ॥ ५ ॥ (४३) ख-में इसके श्रागे यह दोहा है। बिरह जलाई मैं जलौं, मो बिरहनि के दुष । छाहन बैसों डरपती, मति जलि ऊ रूप ॥४६।।