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पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/९६

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कबीर-ग्रंथावली

दौं लागी साइर जल्या,पंषी बैठे प्राइ ।
दाधी देह न पालवै,सतगुर गया लगाय ॥ ६ ॥
गुर दाधा चेला जल्या,बिरहा लागी प्रागि।
तिणका बपुड़ा ऊबरसा,गलि पूरे कै लागि ।। ७ ॥
अहेड़ी दौं लाइया,मृग पुकारे रोइ ।
जा बन मैं कोला करी,दाझत है बन सोइ ॥८॥
पाणी मांहैं प्रजली,भई अप्रबल प्रागि ।
बहती सलिता रहि गई,मंछ रहे जल त्यागि ।। ६॥
समंदर लागी प्रागि,नदियां जलि कोइला भईं ।
देखि कबीरा जागि,मंछी रूषां चढि गईं ॥ १० ॥ १२२ ॥

(५) परचा को अंग
कबीर तेज अनंत का,मानौं उगी सूरज सेणि ।
पति सँगि जागी सुंदरी,कौतिग दीठा तेणि ॥ १ ॥
कौतिग दीठा देह बिन,रवि ससि बिना उजास ।
साहिब सेवा माहिं है,बेपरवांही दास ॥२॥
पारब्रह्म के तेज का,कैसा है उनमान ।
कहिबे कू सोभा नहीं, देख्याही परवान ॥ ३ ॥
अगम अगोचर गमि नहीं,तहां जगमगै जोति ।
जहां कबीरा वंदिगी,(तहां) पाप पुन्य नहीं छोति ॥ ४ ॥
हदे छाडि बेहदि गया,हुवा निरंतर बास ।
कवल ज फूल्या फूल बिन,को निरषै निज दास ॥ ५॥

(६)ख-कवल जो फूला फूल बिन ।
(१०)ख-में इसके आगे यह दोहा है-
    विरहा कहै कबीरकौं तूं जनि छोड़ैं मोहि
    पारब्रह्म के तेज मैं,तहाँ ले राखौं तोहि ॥