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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१०४

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'बुढ़िया मान जायगी ?'

'मैं कह दूँगी--अगर तुमने मेरी शादी का नाम भी लिया, तो मैं जहर खा लूंँगी।'

'क्यों न इसी वक्त हम और तुम कहीं चले जायें ?'

'नहीं, वह जाहिरी मुहब्बत है। अस्ली मुहब्बत वह है, जिसकी जुदाई में भी विलास है, जहाँ जुदाई है ही नहीं, जो अपने प्यारे से एक हजार कोस पर होकर भी अपने को उसके गले से मिला हुआ देखती हैं।'

सहसा पठानिन ने द्वार खोला। अमर ने बात बनायी--मैंने तो समझा था, तुम कब की आ गयी होगी। बीच में कहाँ रह गयीं ?

बुढ़िया ने खट्टे मन से कहा--तुमने तो आज ऐसा रूखा जबाब दिया कि मैं रो पड़ी। तुम्हारा ही तो मुझे भरोसा था और तुम्हीं ने मुझे ऐसा जवाब दिया; पर अल्लाह का फ़ज़ल है, बहूजी ने मुझसे वादा किया--जितने रुपये चाहना ले जाना। वहीं देर हो गयी। तुम मुझसे किसी बात पर नाराज़ तो नहीं हो बेटा ?

अमर ने उसकी दिलजोई की--नहीं अम्मा, आपसे भला क्या नाराज़ होता। उस वक्त दादा से एक बात पर झक-झक हो गयी थी; उसी का खुमार था। में वाद को खुद शर्मिन्दा हुआ और तुमसे मुआफ़ी मांगने दौड़ा। मेरी खता मुआफ़ करती हो?

बुढ़िया रोकर बोली--बेटा, तुम्हारे टुकड़ों पर तो जिन्दगी कटी, तुमसे नाराज़ होकर खुदा को क्या मुँह दिखाऊँगी! इस खाल में तुम्हारे पांव की जूतियां बनें, तो भी दरेग न करूँ।

'बस मुझे तस्कीन हो गयी अम्मा। इसीलिए आया था।'

अमर द्वार पर पहुँचा, तो सकीना ने द्वार बन्द करते हुए कहा--कल जरूर आना।

अमर पर एक गैलन का नशा चढ़ गया--जरूर आऊँगा।

'मैं तुम्हारी राह देखती रहूँगी!'

'कोई चीज़ तुम्हारी नजर करूँ, तो नाराज़ तो न होगी?'

'दिल से बढ़कर भी कोई नज़र हो सकती है?'

'नज़र के साथ कुछ शीरीनी होनी ज़रूरी है।'

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कर्मभूमि