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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/२७६

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है। यही आहें एक दिन किसी ज्वालामुखी की भाँति फटकर सारे समाज और समाज के साथ सरकार को भी विध्वंस कर देंगी। अगर किसी की आँखें नहीं खुलतीं, तो न खुलें, मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। एक दिन आयेगा, जब आज के देवता कल कंकड़-पत्थर की तरह उठा-उठा कर गलियों में फेंक दिये जायेंगे और पैरों से ठुकराये जायेंगे। मेरे गिरफ्तार हो जाने से चाहे कुछ दिनों के लिए अधिकारियों के कानों में हाहाकार की आवाजें न पहुँचे, लेकिन वह दिन दूर नहीं है, जब यही आँसू चिनगारी बनकर अन्याय को भस्म कर देंगे,इसी राख से वह अग्नि प्रज्वलित होगी, जिसकी आन्दोलित शिखाएँ आकाश तक को हिला देंगी।

समरकान्त पर इस प्रलाप का कोई असर न हुआ। वह इस संकट को टालने का उपाय सोच रहे थे। डरते-डरते बोले--एक बात कहूँ, बहू, बुरा न मानो। जमानत. . . . .

सुखदा ने त्योरियाँ बदलकर कहा--नहीं, कदापि नहीं। मैं क्यों जमानत दूँ ? क्या इसलिए कि अब मैं कभी जबान न खोलूँगी, अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लूँगी, अपने मुंह पर जाली लगा लूंगी। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि अपनी आँखें फोड़ लूँ, जबान कटवा दूं।

समरकान्त की सहिष्णुता अब सीमा तक पहूँच चुकी थी। गरजकर बोले--अगर तुम्हारी ज़बान काबू में नहीं है, तो कटवा लो। मैं अपने जीते-जी यह नहीं देख सकता कि मेरी बहू गिरफ्तार की जाय और मैं बैठा देखूँ। तुमने हड़ताल करने के लिये मुझसे पूछ क्यों न लिया ? तुम्हें अपने नाम की लाज न हो, मुझे तो है। मैंने जिस मर्यादा-रक्षा के लिए अपने बेटे को त्याग दिया, उस मर्यादा को मैं तुम्हारे हाथों न मिटने दूँगा।

बाहर से मोटर का हार्न सुनायी दिया। सुखदा के कान खड़े हो गये। वह आवेश में द्वार की ओर चली। फिर दौड़कर लल्लू को नैना की गोद से लेकर उसे हृदय से लगाते हुए अपने कमरे में जाकर अपने आभूषण उतारने लगी। समरकान्त का सारा क्रोध कच्चे रंग की भांति पानी पड़ते ही उड़ गया। लपककर बाहर गये और आकर घबड़ाये हुए बोले--वह, डिप्टी आ गया। मैं जमानत देने जा रहा हूँ। मेरी इतनी याचना स्वीकार करो।

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कर्मभूमि