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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/२७७

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थोड़े दिनों का मेहमान हूँ। मुझे मर जाने दो, फिर जो कुछ जी में आये, करना।

सुखदा कमरे के द्वार पर आकर दृढ़ता से बोली--मैं जमानत न दूंगी, न इस मुआमले की पैरवी करूँगी! मैंने कोई अपराध नहीं किया हैं।

समरकान्त ने जीवन भर में कभी हार न मानी थी; पर वह आज इस अभिमानिनी रमणी के सामने परास्त खड़े थे। उसके शब्दों ने जैसे उनके मुँह पर जाली लगा दी। उन्होंने सोचा--स्त्रियों को संसार अबला कहता है। कितनी बड़ी मूर्खता है। मनुष्य जिस वस्तु को प्राणों से भी प्रिय समझता है, वह स्त्री की मुट्ठी में है।

उन्होंने विनय के साथ कहा--लेकिन अभी तुमने भोजन भी तो नहीं किया। खड़ी मुँह क्या ताकती हो नैना, क्या भंग खा गयी है! जा, बहू को खाना खिला दे। अरे ओ महरा! महरा! यह ससुरा न जाने कहां मर रहा। समय पर एक भी आदमी नज़र नहीं आता। तू बहू को ले जा रसोई में नैना, मैं कुछ मिठाई लेता आऊँ। साथ-साथ कुछ खाने को ले जाना ही पड़ेगा।

कहार ऊपर बिछावन लगा रहा था। दौड़ा हुआ आकर खड़ा हो गया। समरकान्त ने उसे जोर से एक धौल मारकर कहा--कहाँ था तू? इतनी देर से पुकार रहा हूँ, सुनता नहीं! किसके लिए बिछावन लगा रहा है ससुरा! बहु जा रही है। जा दौड़कर बाजार से अच्छी मिठाई ला। चौकवाली दूकान से लाना।

सुखदा आग्रह के साथ बोली--मिठाई को मुझे बिलकुल जरूरत नहीं है और न कुछ खाने ही की इच्छा है। कुछ कपड़े लिये जाती हूँ। वही मेरे लिये काफ़ी है।

बाहर से आवाज आई--सेठजी, देवीजी को जल्द भेजिए, देर हो रही है।

समरकान्त बाहर आये और अपराधी की भाँति खड़े हो गये।

डिप्टी दुहरे बदन का, रोबदार, पर हँसमुख आदमी था, जो और किसी विभाग में अच्छी जगह न पाने के कररण पुलीस में चला आया था। अनाव

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