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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३१५

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चन्दे की हाय-हाय। मैंने कई बार इन ख़ादिमों को चरका दिया, उस वक्त इन ख़ादिमों की सूरत देखने ही से ताल्लुक रखती है। गालियाँ देते हैं, पैंतरे बदलते हैं, ज़बान से तोप के गोले छोड़ते हैं, और आप उनके बौखलेपन का मजा उठा रहे हैं। मैंने तो एक बार एक लीडर साहब को पागलखाने में बन्द कर दिया था। कहते हैं अपने को कौम का ख़ादिम और लीडर समझते हैं।

सबेरे मि० ग़ज़नवी ने अमर को अपने मोटर पर गाँव में पहुँचा दिया। अमर के गर्व और आनन्द का वारापार न था। अफ़सरों की सोहबत ने कुछ अफ़सरी की शान पैदा कर दी थी। हाकिम परगना तुम्हारी हालत जाँच करने आ रहे हैं। ख़बरदार, कोई उनके सामने झूठा बयान न दे। जो कुछ वह पूछें, उनका ठीक-ठीक जवाब दो। न अपनी दशा को छिपाओ, न बढ़ा कर बताओ। तहकीकात सच्ची होनी चाहिए। मि० सलीम बड़े नेक और ग़रीब-दोस्त आदमी हैं। तहक़ीक़ात में देर ज़रूर लगेगी; लेकिन राज्य व्यवस्था में देर लगती ही है। इतना बड़ा इलाका है, महीनों घूमने में लग जायँगे। तब तक तुम लोग खरीफ़ का काम शुरू कर दो। रुपये में आठ आने छूट का मैं जिम्मा लेता हूँ। सब्र का फल मीठा होता है, इतना समझ लो।

स्वामी आत्मानन्द को भी अब विश्वास आ गया। उन्होंने देखा, अमर अकेला ही सारा यश लिये जाता है और मेरे पल्ले अपयश के सिवा और कुछ नहीं पड़ता, तो उन्होंने पहलू बदला। एक जलसे में दोनों एक ही मंच से बोले। स्वामीजी झुके, अमर ने कुछ हाथ बढ़ाया। फिर दोनों में सहयोग हो गया।

इधर असाढ़ की वर्षा शुरू हुई, उधर सलीम तहकीकात करने आ पहुँचा। दो-चार गाँवों में असामियों के बयान लिखे भी; लेकिन एक ही सप्ताह में ऊब गया। पहाड़ी डाकबँगले में भूत की तरह अकेले पड़े रहना उसके लिए कठिन तपस्या थी। एक दिन बीमारी का बहाना कर के भाग खड़ा हुआ, और एक महीने तक टाल-मटोल करता रहा। आख़िर जब ऊपर से डाँट पड़ी और ग़ज़नवी ने सख़्त ताकीद की, तो फिर चला। उस वक्त सावन की झड़ी लग गयी थी, नदी-नाले भर गये थे, और कुछ ठण्डक आ गयी थी। पहाड़ियों पर हरियाली छा गयी थी, मोर बोलने लगे थे। इस प्राकृतिक शोभा ने देहातों को चमका दिया था।

कई दिन के बाद आज बादल खुले थे। महन्तजी ने सरकारी फ़ैसले के

कर्मभूमि
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