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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३४९

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समरकान्त ने अपने लखनऊ आने और सुखदा से मिलने का हाल कहा। फिर मतलब की बात छेड़ी--अमर तो यहीं होगा! सुना, तीसरे दरजे में रखा गया है।

अँधेरा ज्यादा हो गया था। कुछ ठंड भी पड़ने लगी थी। चार सवार तो गाँव की तरफ़ चले गये, सलीम घोड़े की रास थामे हुए पाँव-पाँव समरकान्त के साथ डाकबँगले चला।

कुछ दूर चलने के बाद समरकान्त बोले--तुमने दोस्त के साथ खूब दोस्ती निभायी। जेल भेज दिया अच्छा किया; मगर कम-से-कम उसे कोई अच्छा दरजा तो दिला देते। मगर हाकिम ठहरे, अपने दोस्त की सिफ़ारिश कैसे करते।

सलीम ने व्यथित कंठ से कहा--आप तो लालाजी मुझी पर सारा गुस्सा उतार रहे हैं। मैंने तो दूसरा दरजा दिला दिया था; मगर अमर खुद मामूली क़ैदियों के साथ रहने पर ज़िद करने लगे, तो मैं क्या करता। मेरी बदनसीबी है कि यहाँ आते ही मुझे वह सब कुछ करना पड़ा, जिससे मुझे नफ़रत थी।

डाकबँगले पहुँचकर सेठजी एक आराम कुरसी पर लेट गये और बोले--तो मेरा यहाँ आना व्यर्थ हुआ। जब वह अपनी खुशी से तीसरे दरजे में है, तो लाचारी है। मुलाकात तो हो जायगी?

सलीम ने उत्तर दिया--मैं आपके साथ चलूँँगा। मुलाकात की तारीख तो अभी नहीं आयी है, मगर जेलवाले शायद मान जायँ। हाँ, अंदेशा अमरकान्त की तरफ़ से है। वह किसी क़िस्म की रिआयत नहीं चाहते।

उसने जरा मुसकराकर कहा---अब तो आप भी इन कामों में शरीक होने लगे!

सेठजी ने नम्रता से कहा---अब मैं इस उम्र में क्या काम करूँगा। बूढ़े दिल में जवानी का जोश कहाँ से आये। बहू जेल में है, लड़का जेल में है, शायद लड़की भी जेल की तैयारी कर रही है। और मैं चैन से खाता पीता हूँ, आराम से सोता हूँ! मेरी औलाद मेरे पापों का प्रायश्चित कर रही है। मैंने ग़रीबों का कितना खून चूसा है, कितने घर तबाह किये हैं, उसकी याद करके खुद शर्मिन्दा हो जाता हूँ। अगर जवानी में समझ आ

कर्मभूमि
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