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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/३९५

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मि० सेन ने निर्दयता से कहा---अब इस आन्दोलन की जड़ कट गयी। शगुन कह रहे हैं।

पं० ओंकारनाथ ने चुटकी ली--उस ब्लाक पर अब बँगले न बनेंगे। शगुन कह रहे हैं।

सेन बाबू भी अपने लड़के के नाम से उस ब्लाक के एक भाग के खरीदार थे। जल उठे--अगर बोर्ड में अपने पास किये हुए प्रस्तावों पर स्थिर रहने की शक्ति नहीं है, तो उसे इस्तीफ़ा देकर अलग हो जाना चाहिए।

मि० शफीक ने जो युनिवर्सिटी के प्रोफेसर और डाक्टर शान्तिकुमार के मित्र थे, सेन को आड़े हाथों लिया--बोर्ड के फ़ैसले खुदा के फ़ैसले नहीं हैं। उस वक्त बेशक बोर्ड ने उस ब्लाक को छोटे-छोटे प्लाटों में नीलाम करने का फैसला किया था; लेकिन उसका नतीजा क्या हआ? आप लोगों ने वहाँ जितना इमारती सामान जमा किया, उसका कहीं पता नहीं है, हज़ार आदमी से ज्यादा रोज रात को वहीं सोते हैं। मुझे यकीन है कि वहाँ काम करने के लिए मज़दूर भी राजी न होगा। मैं बोर्ड को ख़बरदार किये देता हूँ कि अगर उसने अपनी पालिसी बदल न दी,तो शहर पर बहुत बड़ी आफ़त आ जायगी। सेठ समरकान्त और शान्तिकुमार का शरीक होना बतला रहा है कि यह तहरीक बच्चों का खेल नहीं है। उसकी जड़ बहुत गहरी पहुँच गयी है और उसे उखाड़ फेंकना अब करीब-करीब गैरमुमकिन है। बोर्ड को अपना फ़ैसला रद करना पड़ेगा। चाहे अभी करे, या सौ-पचीस जानों की नज़र लेकर करे। अब तक का तजरबा तो यही कह रहा है कि बोर्ड की सख्तियों का बिल्कुल असर नहीं हुआ; बल्कि उलटा ही असर हुआ। अब जो हड़ताल होगी, वह इतनी खौफनाक होगी कि उसके खयाल से रोंगटे खड़े होते हैं। बोर्ड अपने सिर पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी ले रहा है।

मि० हामिद अली कपड़े की मिल के मैनेजर थे। उनकी मिल घाटे पर चल रही थी। डरते थे, कहीं लम्बी हड़ताल हो गयी, तो बघिया ही बैठ जायगी। थे तो बेहद मोटे; मगर बेहद मेहनती। बोले--हक़ को तसलीम करने में बोर्ड को क्यों इतना पसोपेश हो रहा है, यह मेरी समझ में नहीं आता। शायद इसलिए कि उसके ग़रूर को झुकना पड़ेगा। लेकिन हक़ के सामने झुकना कमजोरी नहीं, मजबूती है। अगर आज इसी मसले पर बोर्ड

कर्मभूमि
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