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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/६७

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दस बजे रात को अमरकान्त सलीम के घर पहँचा। अभी यहां से घण्टे ही भर पहले गया था। सलीम ने चिन्तित होकर पूछा--कैसे लौट पड़े भाई, क्या कोई नयी बात हो गयी?

अमर ने कहा--एक बात सूझ गयी। मैंने कहा, तुम्हारी राय भी ले लूँ। फांसी की सजा पर खामोश रह जाना तो बुज़दिली है। किचलू साहब (जज) को सबक़ देने की जरूरत होगी ; ताकि उन्हें भी मालूम हो जाय, कि नौजवान भारत इन्साफ का खुन देखकर खामोश नहीं रह सकता है। सोशल बायकाट कर दिया जाय। उनके महाराज को मैं रख लूंगा, कोचमैन को तुम रख लेना। बचा को पानी भी न मिले। जिधर से निकले उधर तालियां बजें।

सलीम ने मुसकराकर कहा--सोचते-सोचते सोची भी तो वही बनियों की बात।

'मगर और कर ही क्या सकते हो?'

'इस बायकाट से क्या होगा! कोतवाली को लिख देगा, बीस महाराज और कोचवान हाजिर कर दिये जायेंगे।'

'दो-चार दिन परेशान तो होंगे हजरत !'

'बिलकुल फ़जूल सी बात है। अगर सबक़ ही देना है, तो ऐसा सबकः दो जो कुछ दिन हजरत को याद रहे। एक आदमी ठीक कर लिया जाय जो ऐन वक्त, जब हजरत फैसला सुना कर बैठने लगें, एक जूता ऐसे निशाने से चलाये कि मुँह पर लगे।'

अमरकान्त ने कहकहा मारकर कहा--बड़े मसखरे हो यार!

'इसमें मसखरेपन की क्या बात है?'

'तो क्या सचमुच जूते लगवाना चाहते हो!'

'जीहां, और क्या मजाक कर रहा हूँ। ऐसा सबक देना चाहता हूँ कि फिर हज़रत यहां मुँह न दिखा सकें।'

अमरकान्त ने सोचा, कुछ भद्दा काम तो है ही, पर बुराई क्या है। लातों के देवता कहीं बातों से मानते हैं ? बोला--अच्छी बात है, देखा जायगा; पर ऐसा आदमी कहां मिलेगा ?

सलीम ने उसकी सरलता पर मुसकराकर कहा---आदमी ऐसे मिल

कर्मभूमि
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