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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/६८

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सकते हैं, जो राह चलते गर्दन काट लें। यह कौन-सी बड़ी बात है। किसी बदमाश को दो सौ रुपये दे दो, बस। मैंने तो काले खां को सोचा है।

'अच्छा वह ! उसे तो मैं एक बार अपनी दुकान पर फटकार चुका हूँ।

'तुम्हारी हिमाकत थी। ऐसे दो चार आदमियों को मिलाये रहना चाहिए। वक्त पर उनसे बड़ा काम निकलता है। मैं और सब बातें तय कर लूँगा ; पर रुपये की फ़िक्र तुम करना। मैं तो अपना बजट पूरा कर चका।'

'अभी तो महीना शुरू हुआ है भाई !'

'जी हां, यहां भी शुरू ही में खत्म हो जाते हैं। फिर नोच-खसोट पर चलती है। कहीं अम्मा से १०) उड़ा लाये, कहीं अब्बाजान से किताब के बहाने से पांच-दस ऐंठ लिये। पर २००) की थैली ज़रा मुश्किल से मिलेगी। हां तुम इन्कार कर दोगे, तो मजबूर होकर अम्मा का गला दबाऊँगा।'

अमर ने कहा--रुपये का कोई ग़म नहीं। मैं जाकर लिये आता हूँ।

सलीम ने इतनी रात गये रुपये लाना मुनासिब न समझा। बात कल के लिये उठा रखी गयी। प्रातःकाल अमर रुपये लायेगा और काले खां से बातचीत पक्की कर ली जायगी।

अमर घर पहुँचा तो, साढ़े दस बज रहे थे। द्वार पर बिजली जल रही थी। बैठक में लालाजी दो-तीन पण्डितों के साथ बैठे बात कर रहे थे। अमरकान्त को शंका हुई, इतनी रात गये यह जगहग किस बात के लिये है। कोई नया शिगूफा़ तो नहीं खिला?

लालाजी ने उसे देखते ही डांटकर कहा--तुम कहाँ घूम रहे हो जी! दस बजे के निकले-निकले आधी रात को लौटे हो। जरा जाकर लेडी डाक्टर को बुला लो, वही जो बड़े अस्पताल में रहती है। अपने साथ लिये हुए आना।

अमरकान्त ने डरते-डरते पूछा--क्या किसी की तबीयत----

समरकान्त में बात काटकर कड़े स्वर में कहा--क्या बक-बक करते हो। मैं जो कहता हूँ वह करो। तुम लोगों ने तो व्यर्थ ही संसार में जन्म लिया। वह मुक़दमा क्या हो गया, सारे घर के सिर जैसे भूत सवार हो गया। चट-पट जाओ।

अमर को फिर कुछ पूछने का साहस न हुआ। घर में भी न जा सका,

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कर्मभूमि