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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१०२

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कबीर साहब जाग पियारी अब का सोधै । ४७ रैन गई दिन काहे को खोयें ॥ जिन जागा तिन मानिक पाया । तैं बोरी सब सोय गँवाया ॥ पिय तेरे चतुर तू मूरख नारी । कबहुँ न पिय की सेज सवारी ॥ हौं बोरी बौरापन कीन्हो । भर जोबन अपना नहिं चीन्हों ॥ जाग देख पिय सेज न तेरे | तोहि छाड़ि उठि गये सबेरे ॥ कहै कबीर सोई धन जागै । सबद बान उर अन्तर लागे ॥ १८० ॥ या जग अंधा मैं केहि समुझाच ॥ देश ॥ इक दुइ हो यँ उन्हें समझावों सबहि भुलाना पेट के धन्या ॥ मैं के हि० ॥ पानी के घोड़ा पवन असवरवा दरकि परे जस ओस कै बुन्दा ॥ मैं केहि० ॥ गहिरी नदिया अगम बड़े धरवा खेवन हाराके पड़िगा फन्दा | मैं केहि० ॥ घर की वस्तु निकट नहिं आवत दियना बारिके दूँढत अंधा ॥ मैं केहि० ॥ लागी आग सकल बन जरिगा बिन गुरु शन भटकिगा बन्दा | मैं केहि० ॥ कहै कबीर सुनो भाई साधो इक दिन जाय लंगोटी भार बनना । मैं के . है ० | १८१ ॥