पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१०३

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४८ कविता कौमुदी सूर संग्राम को देख भागे नहीं, देखि भागै सोई सूर नाहीं । काम औ क्रोध मद लोभ से जूझना, मँडा घमसान तह खेत माहीं ॥ सील म साच संतोष साही भये, नाम समसेर तह खूब बाजे । कहै कबीर को जूझि है सुरमा, कायरों भीड़ तह तुरत भाजे ॥ १८२ ॥ ज्ञान का गेंद कर सुरति का दंड कर खेल चौगान मैदान माहीं । जगत का भरमना छोड़दे बालके आयजा भेख भगवंत पाहीं ॥ भेष भगवंत की सेस महिमा करें सेस के सीस पर चरन डारै । कामदल जीतिके कँवल दल सोधिके ब्रह्म को बेधि के क्रोध मारे || पदम आसन करै पवन परिचै कर गगन के महल पर मदन जाएँ । कहत कबीर कोई संत जन जौहरी करम की रेख पर मेख मारै ॥ १८३॥ माया महा ठगिनि हम जानी । तिरगुन फाँस लिये कर डोलै बोलै मधुरी बानी ॥ केशव के कमला ह बैठी शिव के भवन भवानी | पंडा के मूरत है बैठी तीरथ में भई पानी ॥