सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५४ कविता-कौमुदी जो तुम गोपालहि नहि गैा । में तो तुमका सुख दुख उपजै सुखहि कहाँ ते पैहा ॥ माला नाय सकल जग उहको झूठो भेख बन है।। झूठे ते साँचे तब होइ हो हरि की सरन जब ऐह। ॥ कनरस, बतरस और सबै रस झूठहि मूड डुलैही । जब लगि तेल दिया में बाती देखत ही बुझ जैहौ । जो जन राम नाम रंग राते और रंग न सो हौ । कह रैदास सुनो रे कृपानिधि प्रान गये पछितैह। ॥ प्रभु जी संगति सरन तिहारी । जग जीवन राम मुरारी ॥ गली गली को जल बहि आयो सुरसरि जाय समायो । संगत के परताप महातम नाम गंगोदक पायो ॥ स्वाति बूंद बरसै पनि ऊपर सीस विषै होइ जाई । वही बूँद के मोती निपजै संगत की अधिकाई ॥ तुम चंदन हम रेंड बापुरे निकट तुम्हारे आसा । संगत के परताप महातम आवै बास सुबासा ॥ जाति भी ओछी करम भी ओछा ओछा कसब हमारा । नीचे से प्रभु ऊंच किया है कह रैदास चमारा ॥ धर्मदास

    • र्मदास जी जाति के कसौंधन बनिये और बाँधव-

गढ़ के बड़े भारी महाजन थे इनके जन्म और ध मरण के समय का ठीक पता नहीं चलता ।

        • परन्तु ये कबीर साहब के समकालीन थे, यह

निश्चय है ।