पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रैदास कह रैदास तेरी भगति दूर है भाग बड़े से पाये । तजि अभिमान मेटि आपा पर पिपलिक है सुनि खावै ॥ ४ पहले पहरे रैन दे बनजरिया तैं जनम लिया संसार वे । सेवा चूकी राम की तेरी बालक बुद्धि गंवार वे ॥ बालक बुद्धि न चेता तू भूला माया जाल वे 1 कहा होय पीछे पछिताये जल पहिले न बाँधी पाल वे | बीस बरस का भया अयाना थाँभि न सक्का भार वे । जन रैदास कहै यनजरिया जनम लिया संसार वे ॥ ५ संगा ॥ राम मैं पूजा कहा चढ़ाऊँ । फल अरु मूल अनूप न पाऊँ ॥ धनहर दूध जो बछरू जुठारी । पुहुप भँवर जल मीन विगारी ॥ मलयागिर बेधियो भुअंगा। विष अमृत दोउ एकै मन ही पूजा मन ही धूप । मन ही सेऊँ सहज पूजा अरचा न जानू तेरी । कह रैदास कवन गति मेरी ॥ रे चित चेत अचेत ६ सरूप ॥ 4 काहे बालक को देख रे जाति तें कोइ पद नहि पहुंचा राम भगति विशेष रे ॥ खट क्रम सहित जे विप्र होते हरि भगति चित दृढ़ नाहि रे । हरि की कथा सोहाय नाहीं स्वपच तूलै ताहि रे ॥ मित्र शत्रु अजात सबतें अन्तर लावे लाग वाकी कहाँ जान अजामिल गज गनिका तारी हेत ₹। तीन लोक पवेत रे ! काटी कुंजर की पास रे 1 ऐसे दुरमत मुक्त कीये तो क्यों न सरे रैदास रे ३