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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१११

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५६ कविता-कौमुदी गुरु पैयाँ लागों नाम लखा दीजो रे । दीजो रे ॥ दीजो रे ॥ दीजो रे !! जनम जनम का सोया मनुओं शब्दन मारि जगा घट अँधियार नैन नहिं सूझे ज्ञान का दीपक जगा विष की लहर उठत घट अन्तर अमृत बूँद बुवा गहिरो नदिया अगम बर्दै धरवा स्वेय के पार लगा दीजो रे ॥ धरमदास की अरज गुसाई अब के खेप निभा दीजो रे ॥ २ ॥ हम सत्त नाम के बैपारी । कोई कोई लादे काँसा पीतल कोई कोई लौंग सुपारी ॥ हम तो लायो नाम धनी को पूरन लेप हमारी ॥ पूँजी न टूटै नफा चौगुना बनिज किया हम भारी ॥ हा जगाती रोक न सकि हैं निर्भय गैल हमारी ॥ मोति बूँद घटो में उपजै सुकिरत भरत कोठारी ॥ नाम पदारथ लाइ चला है धरमदास बेपारी ॥ ३ ॥ भरि लागे महलिया, गगन घहराय । खन गरजै खन बिजुली चमकै, लहर उठे शोभा बरनि न जाय ॥ सुन महल से अमृत बरसै, प्रेम अनन्द में साधु नहाय ॥ खुलीकिवरियामिटीअंधियरिया, धनसतगुरुजिनदियालखाय ॥ धरमदास बिन कर जोरी, सतगुरु चरन में रहत समाय ॥४॥ मितऊ मड़ैया सूनी करि गैलो | अपन बलम परदेश निकरि गैला हमरा के कछुवा न गुन दै गैला ॥ जोगिन है के मैं बन हमरा के बिरह बैराग दे गैलो || सँग को सखी सब पार उतरि गैलीं हम धन ढाढ़ी भकेली रहि गैलो ||