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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/११४

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गुरु नानक हिरदे जिनके हरि बसे से जन कही न आई नानका मन की दुविधा ना मिदै कउड़ी बदले नानका जित बेले अमृत बसे, तिन बेले तू उठि इस दम दा मैनू कीबे या संसार रेन दा बहु ५६ कहियहि सूर | भरपूर ॥ ६ ॥ पूरि रहया मुक्ति कहाँ ते होइ जन्म चल्या नर खोइ ॥ ७ ॥ जीयाँ होवे दाति । चिह पहरे पिछली राति ॥ ८॥ भरोसा आया आया न आया न आया || सुपना कहि दीखा कहि नाहि दिखाया || सोच विचार करे मत मन में . जिसने ढूँढ़ा उसने पाया ॥ नानक भक्तन के पद परसे निस दिन, रामचरन चित लाया ॥ ६ ॥ सब कछु जीवत को व्योहार । मात पिता भाई सुत बांधव अरु पुन गृह की नार ॥ तन ते प्रान होत जब घ घरी कोऊ नहि राखे घर ते मृग तृस्ना ज्यों जग रचना न्यारे टेरत प्रत पुकार ॥ देत निकार || यह देखो दे विचार ॥ कहु नानक भज राम नाम नित जातें हो उधार ॥ १० ॥ मन की मनहीं माहिं रही ना हरि भजे न तीरथ सेये चोटी काल गही ॥ दारा मीत पूत रथ संपत्ति धन जन पूर्न मही ॥ और सकल मिथ्या यह जानो फिरत फिरत बहुते जुग हास्सो नानक कहत मिलन की बिरियाँ सुमिरत कहा नहीं ॥ ११ ॥ भजना राम सही ॥ मानस देह लही