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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१२२

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सुरदास ६७ नैना ढीठ अतिही भए । लाज लकुट दिखाइ त्रासी क न नए # मेटि गए। ॥ मए ॥ ठप । ११ ॥ गई। तोरि पलक कपाट घूँघट ओट मिले हरि को जाइ आतुर जे हैं गुणनि मुकुट कुण्डल पीत पत्र कटि ललित भेस जाइ लुब्धे निरखि वह छवि सूर नन्द जय बिछुरे श्री वजराज आजु तौ नैनन ते परतीत उठिन गई हरि संग तबहि ते ह े न गई सखि श्याम मई ॥ रूप रसिक लालची कहावत सो करनी कछुवै न भई । साचे क्रूर कुटिल ए लोचन व्यथा मीनछवि मानो छीन लई ॥ अब काहे जल मोचत सोचत समैौ गए ते शूल नए । सूरदास याही ते जड़ भए इन पलकन ही दगा दर ॥ यशोदा बार बार ये भाषे । है कोई ब्रज हितू हमारो चलत कहा काज मेरे छगन मगन को नृप १२ ॥ गोपालहि राख ॥ मधुपुरी बुलायो । सुफलक सुत मेरे प्राण हतन को काल रूप है आयौ ।। बरु ये गोधन हरो कंस सब मोहि बंदी ले मेला । खेलौ ॥ इतने ही सुख कमल नयन मेरी अँखियन आगे are aar faorea जीवों निसि निज अङ्क में लाओं । तेहि बिछुरत जो जीवों कर्म वश तौं हलि काहि बुलाओं ॥ कमल नयन गुण टेरत टेरत अधर बदन कुम्हिलानी । सूर कहा लगि प्रकट जनाॐ दुखित नन्दजू की रानी ॥ १३ ॥ अरी मोहि भवन भयानक लागे, माई ! श्याम बिना | देखहि जाइ काहि लोचन भरि नन्द महरि के अङ्गना || जु गये अक्रूर ताहि को ब्रज के प्राण कौन सहाय करे घर अपने मेटे धना । विघन घना ॥