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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१२३

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१८ कविता-कौमुदी काहि उठाइ गोद करि लीजै करि करि मन भगना । सूरदास मोहन दरसन बिन सुख संपति सपना ॥ १४ ॥ नम सलोने श्याम हरि कब आवहिंगे । फूल । वे जा देखत राते राते फूलन फूले डार । हरि बिन फूल झरीसी लागत करिकरि परत अंगार ॥ फूल बिनन ना जाऊँ सखीरी हरि बिन कैसे सुनरी सखी मोहि राम दुहाई लागत फूल त्रिशूल ॥ जयतें पनिघट जाऊ सखोरी वा नमुना के तीर । भरि भरि यमुना उमड़ चलत हैं इन नैनन के नीर ॥ इन नैनन के नीर सखीरी सेज भई चाहत है। ताही पै चढ़िके हरि जी के ढिग जावें ॥ पियारे प्राण हमारे रहे अधर पर आय | सूरदास प्रभु कुंज बिहारी मिलत नहीं क्यों धाय ॥ १५ ॥ लाल प्रीति करि काह सुख न लह्यो । घरनाव । प्रीति पतंग करी दीपक सों आपै प्राण दह्यो ॥ . अलि सुत प्रीति करी जल सुत से सम्पति हाथ गह्यो । सारङ्ग प्रीति करी जो नाद सों सन्मुख बाण सो ॥ हम जो प्रीत करी माधव सों चलत न कछु कह्यो । सूरदास प्रभु बिन दुख दूनो नैनन नीर बह्यो ॥ १६ ॥ प्रीति तौ मरनऊ न बिचारै। प्रीति पतङ्ग जति पावक ज्यों जरत न आपु सँभारे ॥ प्रीति कुरङ्ग नाद स्वर मोहित बधिक निकट है मारे । प्रीति परेवा उड़त गगन तें उड़त सावन मास पपीहा बोलत पिङ पिs सूरदास प्रभु दरसन कारन ऐसी भाँति न आपु संभारै ॥ करि जो पुकारै । बिचारे ॥ १७ ॥