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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१२७

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R ऊधो योग योग हम नाहीं । कविता-कौमुदी अबला सार ज्ञान कहा जाने कैसे ध्यान ते ये मूंदन मैन कहत हैं हरि मूरति जा धराहीं ॥ माहीं । पेली कथा कपट की मधुकर हमतें सुनी न आदीं ॥ श्रवण चीर अरु जटा बँधावहु ये दुख कौन समाहीं । चंदन तजि अँग भस्म बतावत विरह अनल अति दाहीं । योगी भरमत जेहि लगि भूले सो तो है अपु माहीं । सुरदास ते न्यारे न पल छिन ज्यों घट ते परिछाहीं ॥ २८ ॥ कहाँ लौ कीजै बहुत बड़ाई । जाई ॥ सखा सहाई । माई | अति अगाध मन अगम अगोचर मनसो तहाँ न जाके रूप न रेख बरन वपु नाहिन संगत ता निर्गुण सों नेह निरन्तर क्यों निबहैरी जल बिन तरंग भीति बिन लेखन बिन चेतहि चतुराई ॥ नहीं चाह है ऊधो आनि सुनाई मन चुभि रह्यो माधुरी मूरति अंग अंग उरकाई । सुंदर श्याम कमल दल लोचन सुरदास सुखदाई ॥ २३ ॥ कहत फत परदेशी की बात । या प्रज में कछु मंदिर अरध अवधि यदि हमसों शशि रिपु वरण सूर रिपु युगवर हरि अहार चलि जात ॥ हर रिपु किये फिरे घात । मघ पंचक लै गये श्यामघन आइ बनी यह बात ॥ नक्षत वेद प्रह जोरि अर्द्ध करि को सूरदास प्रभु तुमहिं मिलन को कर मीजत बरजै हम खात । पछितात ॥ ३० ॥ ऊधो जो तुम इमहिं बतायो । सो हम निपट कठिनाई करि करि या मनको समुझायो ॥ योग याचना जबहि अगह गहि तबहीं है सो ल्यायो । भटक पो पोहित के बग ज्यों फिरि हरि ही चै आयो