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पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१२८

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अब के तो सोई उपदेशो जेहि जिय जाय बारक मिलें जिआयो ! सूर के प्रभु तौ करों आपनों भायो ॥ ३१ ॥ मधुकर इतनी कहियहु जाइ । अति कृष गात भई ये तुम बिन परम दुखारी जल समूह बरसत दोउ आँखें हूँ कति लीने जहाँ जहाँ गोदोहन कीनों गाय ॥ नाउँ । परति पछार खाइ छिनहीं छिन मानहु सूर काढ़ि डारी है वारि जाके रूप वरन वपु नाहीं । सूँघति सोई अति आतुर हैं ठाउँ ॥ दीन । मध्य तें मीन ॥ ३२ ॥ anaraत माहीं ॥ हृदय कमल में ज्योति-विराजै । इडा पिंगला सुखमन माता पिता न दारा अनहद नाद निरन्तर बाजे ॥ नारी । सहज सु तामे । बसें मुरारी ॥ भाई । जल थल घट घट रहयो समाई ॥ इहि प्रकार भव दुख सरि तरहू । योग पंथ क्रम क्रम अनुसरहू ॥३३॥ प्रेम प्रेम तें होय प्रेम ते पर है जीये । प्रेम बँधी संसार प्रेम परमारथ लहिये ॥ एकै निश्चय प्रेम को जीवन मुक्ति रसाल | साँचो निश्चय प्रेम को जिहिरे मिलै गोपाल ॥ ऊधो कहि योग प्रेम रस सतभाय न्याय तुम्हरे मुख कथा कहो कंचन की साँचे । काँगे !! जाके पर है मधुप हमारी सों हूजिये गहिये सोई कहो योग भलो या निम प्रेम ॥