पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सुनि गोपी गावत के बयन नेम गुण गोल फिरत पाँ परें धन्य खिन गोरी के धाइ घाइ झुम भेटही ऊधो श्रनि गोपी धनि ग्वाल धन्य धनि यह पावन भूमि जहाँ उपदेसन आये हुते मोहि यदुपति पै चले ऊधो घरे यदुपति नाव कहो भूले बार कविता-कौमुदी ऊधो के भूले । कुंजन में फूले ॥ सोह है नेम । प्रेम ॥ छाके सुरभी बनचारी । गोविंद अभिसारी ॥ भयो उपदेस | गोप को भेल ॥ गोपाल गोसाई | व्रज जाहु देहु गोपिन बसे दिखराई ॥ आइ । पकरे पाँइ ॥ i एक वृंदावन सुख छाँड़ि कै कहाँ गोवर्द्धन प्रभु ऊधों ब्रज उमग्यो नैनन जानि के ऊधो सूर श्याम भूलत को नेम प्रेम बरनो सब आई । नीर बात कछु कहयो न जाई || भये रहे नेन जल छाइ । पोंछि पोत पद सों कहां भल आये योग सिखाइ ॥ ३४॥ कहाँ लौं कहिये ब्रज की बात । दिवस बिहात | बदन कृश गात ॥ गत बिन पात ॥ पूछति कुशलात | सुनहु श्याम तुम बिन उन लोगन जैसे गोपी गाइ ग्वाल गोसुन वै मलिन परम दीन जनु शिशिर हिमी हत अंबुज जाकहुँ आवत देखि दूरतें सब चलन न देत प्रेम आतुर उर कर चरनन पिक चातक बन बसन न पावहिं वायस बलिहि न खात । सूर श्याम संदेशन के डर पथिक न उहि मग जात ॥ ३५ ॥ सुन ऊधो मोहि नेक न बिसरत वे ब्रजवासी लोग | तुम उनको भली न कीनी निसिदिन दियो बियोग ॥ कछु लपटात ||