सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कबीर साहब सुमिरन की सुधि यों करै ज्यों हालै डोलै सुरति में माला तो कर में फिर मनुवाँ तो दहु दिस फिर गगन मंडल के बीच में अनाहद ३१ गागर पनिहार 1 कहे कबीर विचार ॥ ६ ॥ जीभ फिरै मुख माहि । यह तो सुमिरन नाहि ||१०|| जहाँ सोहंगम डोरि सुरत लगी तहँ मोरि ॥ ११ ॥ केस | क्या घर क्या परदेस । सबद कबीर गर्ब न ना जानौं कित होत है कीजिये काल कर भारि है ॥ १२ ॥ हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी केस जरे ज्यों घास । सब जग जस्ता देखि कर झूठे सुख को सुख कहैं भये कबीर उदास ।। १३ ।। मानत है मन मद । जगत चबेना काल का कुछ सुख में कुछ गोद ||१४|| जात । ।। १५ ।। खाय । पानी केरा चुद बुदा अस मानुष की देखतही छिपि जायगी ज्यों तारा परभात रात गंवाई सोय करि दिवस गंवाया हीरा जन्म अमोल था कौड़ी बदले जाय ॥ १६ ॥ आज कहै कल्ह भजूँगा काल कहै फिर काल 1 आज कालके करत ही आछे दिन पाछे गये अब पछतावा क्या करें औसर जासी चाल ॥ गुरु से किया न १७ ॥ हेत । चिड़ियाँ चुग गई खेत || १८ | काल करे सो आज कर आज करे सो अब्ब । पलमें परलै कबीर नौबत होयगी बहुरि करैगा कब्य ॥ १६ ॥ आपनी दिन दस लेहु बजाय । यह पुर पट्टन यह गली बहुरि न देखौ आय पाँचो नौबत बाजती होत छतीसो सो मन्दिर खाली पड़ा बैठन लागे काग ॥ ॥ २० ॥ राग । २१ ॥